यूरिड मीडिया डेस्क
-फिल्मों में संवाद का महत्व बोलती फिल्मों की शुरुआत से ही रहा है. संवाद ऐसे कि जिन्हें लोग अपने साथ-साथ लेकर चले जाएं. वज़ाहत मिर्ज़ा, एम. जी. हशमत और कमाल अमरोही जैसे संवाद लेखकों ने जमीन तैयार की जिसे अगली पीढ़ी के लेखकों ने सींचा.
इन्हीं प्रयोगों के बीच कुछ ऐसे संवाद उभर कर आए जिनका उपयोग कई-कई बार अलग-अलग फिल्मों में हुआ. ऐसा इस कारण भी हुआ क्योंकि समान परिस्थिति में उससे बेहतर संवाद या तो लिख पाना ही संभव नहीं था या फिर उसकी जरूरत ही नहीं समझी गई.
1. बा-अदब, बा-मुलाहिजा होशियार
यह कालजयी संवाद 1939 में आई फिल्म 'पुकार' के लिए कमाल अमरोही ने लिखा था. बकौल कमाल अमरोही-उर्दू मेरे जुबान की दासी है. दरबारी पुकार के लिए इससे अलग और इससे बेहतर संवाद आज तक नहीं ढूंढें जा सके.
2. मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूं
1943 में आई 'किस्मत' फिल्म का यह संवाद अगले 40 सालों तक अनगिनत फिल्मों में सुना गया. संतोषी-लतीफ की जोड़ी का यह संवाद कुंवारी मांओं का ट्रेडमार्क संवाद बन गया.
3. मैं तेरा खून पी जाऊंगा
70 के दशक के बाद की फिल्मों में इस संवाद का प्रयोग विवश लेकिन क्रोधित नायक द्वारा खूब किया गया. धर्मेंद्र को ध्यान में रखकर 1973 में आई 'यादों की बारात' के लिए लिखा गया यह संवाद दरअसल गुस्से में दी गई अश्लील गाली का श्लील रूपांतरण है.
4. भगवान के लिए मुझे छोड़ दो
अबला, अकेली लड़की का गुंडे या गुंडों से घिर जाने की स्थिति में निकलता यह एकमात्र संवाद रमेश पंत द्वारा 'आराधना' फिल्म में शर्मीला टैगोर के लिए लिखा गया था. यह संवाद भी फिल्मों में काफी बार सुना गया.
5. मुलजिम अदालत की आंखों में धूल झोंक रहा है
अख्तर-उल-ईमां ने यह संवाद कोर्ट रूम ड्रामा फिल्म 'कानून' के लिए लिखा था. इससे बेहतर संवाद आजतक न पाए गए और इसी संवाद कई-कई बार उपयोग किया गया.
हालांकि उर्दू संवादों के प्रयोगों में आई कमी के कारण कई संवाद आज की फिल्मों में से गायब हो चले हैं. फिर भी यह तो कहना ही होगा कि इन संवादों ने ही फिल्मों की दशा और दिशा तय की है.
19th May, 2017