विजय शंकर पंकज (यूरिड मीडिया डेस्क)
लखनऊ:-
सहयोगी दलों के आये दिन सौदेबाजी तथा मौके से पलटी मारे जाने की राजनीतिक हकीकत को समझते हुए भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व ने अब यह निर्णय किया है कि गठबंधन का समझौता अब दूसरों दलों के चुनाव चिन्ह पर न होकर अब पूर्णरूप से भाजपा के चुनाव चिन्ह पर ही होगा। भाजपा की इस रणनीति के तहत जो भी दल चुनावी समझौता करेगा, उसे भाजपा के ही चुनाव चिन्ह "कमल के फूल" पर लड़ना होगा। भाजपा की इस रणनीति ने उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनाव में कई छोटे दलों तथा अन्य दलों से अलग होकर अपनी राजनीति करने वाले लोगों को बड़ा झटका लग सकता है।
सूत्रों के अनुसार पिछले दिनों भाजपा कोर कमेटी की दिल्ली में हुई बैठक में चुनावी समझौते के तहत अब सहयोगियों को भी कमल के फूल पर चुनाव लड़ाने का निर्णय किया गया है। पार्टी नेतृत्व का मानना है कि पिछले डेढ़ से दो दशक के अन्तर्गत पार्टी ने जिन दलों से राजनीतिक गठबंधन किया, उसमें छोटे दलों को काफी लाभ हुआ परन्तु भाजपा लगातार घाटे में रही। इसका सबसे बड़ा परिणाम बसपा मुखिया मायावती, तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी, जेडीयू के नीतिश कुमार आैर लोक जनशक्ति पार्टी के राम विलास पासवान है। बसपा मुखिया मायावती को भाजपा ने 2 जून 1995 में गेस्ट हाउस कांड में तब शरण दी आैर उनकी जान बचायी, जब उनकी सुरक्षा में दलित कार्यकर्ता भी जाने की हिम्मत नही दिखा पाये जो आज उन्हें देवी मान रहे है। यही नही तब मायावती उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद का ख्वाब भी नही देख पाती, तब भाजपा ने उन्हें बिना शर्त मुख्यमंत्री बनाया। यही नही उसके बाद 6-6 महीने के सरकार बनाने के समझौते में भी अपनी पारी खेलने के बाद मायावती ने धोखा देते हुए भाजपा के मुख्यमंत्री प्रत्याशी कल्याण सिंह को कमान सौपने से मना कर दिया। तीसरी बार भी मायावती ने भाजपा को धोखा ही दिया। इतने धोखे खाने के बाद आज मायावती भाजपा को साम्प्रदायिक आैर दलित विरोधी पार्टी करार देती है। इसी प्रकार ममता बनर्जी, नीतिश कुमार तथा राम विलास पासवान भाजपा गठबंधन की सरकार में मालदार विभागों में रहे लेकिन मौका मिलते ही, ये अलग होकर भाजपा को साम्प्रदायिक पार्टी कहकर अलग राग अलापने लगे। ये सभी नेता मौके से धर्म निरपेक्ष बन जाते है। हाल की घटना अपना दल की अनुप्रिया पटेल के केन्द्रीय मंत्री बनने के बाद की है। इसमें तय हुआ था कि अपना दल का भाजपा में विलय हो जाएगा परन्तु अनुप्रिया पटेल की मां कृष्णा पटेल ने अलग राग अलापते हुए इस रणनीति को विफल कर दिया। इसमे कृष्णा पटेल का साथ दिया प्रतापगढ़ के सांसद ने। इस घटना से सबक लेते हुए भाजपा नेतृत्व ने गठबंधन के नाम पर बोझ बन रहे लोगों को बाहर की राह दिखाने का निर्णय लिया है। भाजपा ने गठबंधन के सहयोगी दलों के मंत्रियों तथा नेताओं को भी साफ कर दिया कि वे कोई ऐसा कृत्य न करे आैर न ही ऐसा बयान दे जो सरकार आैर प्रमुख दल भाजपा की रीति-नीति के खिलाफ हो।
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव को देखते हुए आधे दर्जन से ज्यादा दल तथा दूसरे दल छोड़कर कई प्रमुख नेता भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की रणनीति बना रहे है। इसमें कई नेताओं की कई चरणों में भाजपा नेतृत्व से वार्ता भी हो चुकी है। इसमें राजभर एवं नोनिया विरादरी की राजनीति करने वाले ओम प्रकाश राजभर, संजय राजभर, बसपा से अलग हुए बाबू सिंह कुशवाहा, दद्दू प्रसाद, स्वामी प्रसाद मौर्या तथा आर.के.चौधरी है। सूत्रों का कहना है कि भाजपा इन्हे अपना साथ लेने को तैयार हो गयी है परन्तु अब यह शर्त रखा है कि समझौते के अनुरूप इन्हें उतनी सीटे दी जाएगी परन्तु सभी को भाजपा के चुनाव चिन्ह "कमल के फूल" पर ही चुनाव लड़ना होगा। यह नेता अपना दल का अलग अस्तित्व बनाये रखना चाहते है तो उससे कोई गुरेज नही परन्तु सभी के विधायक भाजपा के ही होगे। भाजपा की इस रणनीति से रालोद के अजित सिंह को भी गहरा झटका लगा है। अजित सिंह अभी भी पुरानी बातों को भुलाकर भाजपा नेतृत्व ने गठबंधन की जोड़-तोड़ में जुटे है। अजित के लिए यह चुनाव पार्टी के अस्तित्व के लिए संकट खड़ा कर दिया है। रालोद के कई विधायक भाजपा-कांग्रेस के संपर्क में है। इन गठबंधन सहयोगियों के साथ ही बसपा एवं सपा के कई प्रमुख नेता भी अभी से भाजपा नेतृत्व के संपर्क में है। सपा के 72 विधायकों के टिकट कटने की आशंका को देखते हुए पार्टी मे हड़कंप मचा हुआ है।
सहयोगी दलों के आये दिन सौदेबाजी तथा मौके से पलटी मारे जाने की राजनीतिक हकीकत को समझते हुए भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व ने अब यह निर्णय किया है कि गठबंधन का समझौता अब दूसरों दलों के चुनाव चिन्ह पर न होकर अब पूर्णरूप से भाजपा के चुनाव चिन्ह पर ही होगा। भाजपा की इस रणनीति के तहत जो भी दल चुनावी समझौता करेगा, उसे भाजपा के ही चुनाव चिन्ह "कमल के फूल" पर लड़ना होगा। भाजपा की इस रणनीति ने उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनाव में कई छोटे दलों तथा अन्य दलों से अलग होकर अपनी राजनीति करने वाले लोगों को बड़ा झटका लग सकता है।
सूत्रों के अनुसार पिछले दिनों भाजपा कोर कमेटी की दिल्ली में हुई बैठक में चुनावी समझौते के तहत अब सहयोगियों को भी कमल के फूल पर चुनाव लड़ाने का निर्णय किया गया है। पार्टी नेतृत्व का मानना है कि पिछले डेढ़ से दो दशक के अन्तर्गत पार्टी ने जिन दलों से राजनीतिक गठबंधन किया, उसमें छोटे दलों को काफी लाभ हुआ परन्तु भाजपा लगातार घाटे में रही। इसका सबसे बड़ा परिणाम बसपा मुखिया मायावती, तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी, जेडीयू के नीतिश कुमार आैर लोक जनशक्ति पार्टी के राम विलास पासवान है। बसपा मुखिया मायावती को भाजपा ने 2 जून 1995 में गेस्ट हाउस कांड में तब शरण दी आैर उनकी जान बचायी, जब उनकी सुरक्षा में दलित कार्यकर्ता भी जाने की हिम्मत नही दिखा पाये जो आज उन्हें देवी मान रहे है। यही नही तब मायावती उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद का ख्वाब भी नही देख पाती, तब भाजपा ने उन्हें बिना शर्त मुख्यमंत्री बनाया। यही नही उसके बाद 6-6 महीने के सरकार बनाने के समझौते में भी अपनी पारी खेलने के बाद मायावती ने धोखा देते हुए भाजपा के मुख्यमंत्री प्रत्याशी कल्याण सिंह को कमान सौपने से मना कर दिया। तीसरी बार भी मायावती ने भाजपा को धोखा ही दिया। इतने धोखे खाने के बाद आज मायावती भाजपा को साम्प्रदायिक आैर दलित विरोधी पार्टी करार देती है। इसी प्रकार ममता बनर्जी, नीतिश कुमार तथा राम विलास पासवान भाजपा गठबंधन की सरकार में मालदार विभागों में रहे लेकिन मौका मिलते ही, ये अलग होकर भाजपा को साम्प्रदायिक पार्टी कहकर अलग राग अलापने लगे। ये सभी नेता मौके से धर्म निरपेक्ष बन जाते है। हाल की घटना अपना दल की अनुप्रिया पटेल के केन्द्रीय मंत्री बनने के बाद की है। इसमें तय हुआ था कि अपना दल का भाजपा में विलय हो जाएगा परन्तु अनुप्रिया पटेल की मां कृष्णा पटेल ने अलग राग अलापते हुए इस रणनीति को विफल कर दिया। इसमे कृष्णा पटेल का साथ दिया प्रतापगढ़ के सांसद ने। इस घटना से सबक लेते हुए भाजपा नेतृत्व ने गठबंधन के नाम पर बोझ बन रहे लोगों को बाहर की राह दिखाने का निर्णय लिया है। भाजपा ने गठबंधन के सहयोगी दलों के मंत्रियों तथा नेताओं को भी साफ कर दिया कि वे कोई ऐसा कृत्य न करे आैर न ही ऐसा बयान दे जो सरकार आैर प्रमुख दल भाजपा की रीति-नीति के खिलाफ हो।
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव को देखते हुए आधे दर्जन से ज्यादा दल तथा दूसरे दल छोड़कर कई प्रमुख नेता भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की रणनीति बना रहे है। इसमें कई नेताओं की कई चरणों में भाजपा नेतृत्व से वार्ता भी हो चुकी है। इसमें राजभर एवं नोनिया विरादरी की राजनीति करने वाले ओम प्रकाश राजभर, संजय राजभर, बसपा से अलग हुए बाबू सिंह कुशवाहा, दद्दू प्रसाद, स्वामी प्रसाद मौर्या तथा आर.के.चौधरी है। सूत्रों का कहना है कि भाजपा इन्हे अपना साथ लेने को तैयार हो गयी है परन्तु अब यह शर्त रखा है कि समझौते के अनुरूप इन्हें उतनी सीटे दी जाएगी परन्तु सभी को भाजपा के चुनाव चिन्ह "कमल के फूल" पर ही चुनाव लड़ना होगा। यह नेता अपना दल का अलग अस्तित्व बनाये रखना चाहते है तो उससे कोई गुरेज नही परन्तु सभी के विधायक भाजपा के ही होगे। भाजपा की इस रणनीति से रालोद के अजित सिंह को भी गहरा झटका लगा है। अजित सिंह अभी भी पुरानी बातों को भुलाकर भाजपा नेतृत्व ने गठबंधन की जोड़-तोड़ में जुटे है। अजित के लिए यह चुनाव पार्टी के अस्तित्व के लिए संकट खड़ा कर दिया है। रालोद के कई विधायक भाजपा-कांग्रेस के संपर्क में है। इन गठबंधन सहयोगियों के साथ ही बसपा एवं सपा के कई प्रमुख नेता भी अभी से भाजपा नेतृत्व के संपर्क में है। सपा के 72 विधायकों के टिकट कटने की आशंका को देखते हुए पार्टी मे हड़कंप मचा हुआ है।
1st August, 2016