यूरिड सर्वे-2
चुनाव में बदलते रहे मुद्दे--
अब तक हुए विधान सभाओं के चुनाव में हर बार चुनावी मुद्दों ने अपना अलग रूप दिखलाया है। वर्ष 1989 से प्रदेश में शुरू हुआ गैर कांग्रेस सरकार का दौर अब तक जारी है। इन 27 वर्षों में सात चुनाव हुए जिसमें 3 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। पूर्ण बहुमत की तीन सरकारों में वर्ष 1991 कल्याण सिंह की सरकार, डेढ़ वर्ष का कार्यकाल ही पूरा कर पाई। वर्ष 2007 में बसपा और 2012 की सपा सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया। अब कुछ ही महीनों बाद विधानसभा का चुनाव होने वाला है। बदले परिवेश में जनता निर्णय करेगी की वो पूर्ण बहुमत की सरकार बनाती है या उसका रुझान क्या होगा? इन चुनाव परिणामों में सभी दलों के मत प्रतिशत एवं सेटों की संख्या में बदलाव आते रहे हैं।
1989 के बाद बनी सरकारें व उनके कार्यकाल
क्र.स.
मुख्यमंत्री
कार्यकाल
1-
मुलायम सिंह यादव
05.12.1989 से 24.06.1991
2-
कल्याण सिंह
24.06.1991 से 06.12.1992
3-
राष्ट्रपति शासन
06.12.1992 से 04.12.1992
4-
मुलायम सिंह यादव
04.12.1993 से 03.06.1995
5-
मायावती
03.06.1995 से 17.10.1995
6-
राष्ट्रपति शासन
18.10.1995 से 21.03.1996
7-
राष्ट्रपति शासन
18.10.1995 से 21.03.1997
8-
मायावती
21.03.1997 से 21.09.1997
9-
कल्याण सिंह
21.09.1997 से 12.11.1999
10-
रामप्रकाश गुप्ता
12.11.1999 से 28.10.2000
11-
राजनाथ सिंह
28.10.2000 से 08.03.2002
12-
राष्ट्रपति शासन
08.03.2002 से 03.05.2002
13-
मायावती
03.05.2002 से 28.08.2003
14
मुलायम सिंह यादव
29.08.2003 से 13.05.2007
15-
मायावती
13.05.2007 से 15.03.2012
16-
अखिलेश यादव
15.03.2012 से वर्तमान
बदलते चुनावी मुद्दे
विधानसभा चुनाव 1989:-
विधानसभा एवं लोकसभा का चुनाव गैर कांग्रेसी सरकार बनाने एवं विशेषकर बोफोर्स मुद्दे पर लड़ा गया। केन्द्र में वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल उ.प्र. में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में चुनाव लड़ गये। गैर कांग्रेसी नारे पर हुए चुनाव में भाजपा एवं जनता दल ने एक साथ खड़े होकर 415 सांसदों वाली भारी बहुमत की कांग्रेस की सरकार को धराशाही कर दिया। केन्द्र में भाजपा समर्थन से वीपी सिंह नेतृत्व में सरकार बनी। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में 5 सितम्बर 1989 को सरकार का गठन हुआ। इस चुनाव में कांग्रेसी 28 प्रतिशत मत पाकर 94 सीटों पर सिमट गयी, जबकि जनता दल ने 29.59 प्रतिशत मत पाकर 204 सीटों पर सफलता अर्जित किया। भाजपा 11.68 प्रतिशत पाकर 57 सीटों पर कब्जा करने में सफल रही, जबकि इस चुनाव की सबसे बड़ी विशेषता कांशीराम के नेतृत्व में गठित बसपा के एजेंडे को जनता में मान्यता प्रदान किया आैर पहली बार 9.33 प्रतिशत मद पाकर 13 सीटों पर हासिल की। इस चुनाव में निर्दलीयों की संख्या
काफी रही आैर 15.32 प्रतिशत मत के साथ 40 निर्दलीय सदस्य विधानसभा पहुंचे। इन निर्दलीयों में एक दर्जन बाहुबली विधायक शामिल रहे। 1989 के चुनाव में लोकदल (बी) नाम से बने दल ने 204 सीटों पर चुनाव लड़ा मात्र 120 प्रतिशत मत पाकर दो सीटे हथियाने में सफल रहा, जबकि अजीत सिंह जनता दल के महत्वपूर्ण नेता की पंक्ति में शामिल थे।
विधानसभा चुनाव 1991:-
वर्ष 1991 के विधानसभा चुनाव धार्मिक उन्माद के बीच सम्पन्न हुआ। जिसमें भाजपा को पहली बार बहुमत सरकार बनाने का मौका मिला। कल्याण सिंह के नेतृत्व में 24 जून 1991 को भाजपा की बहुमत की सरकार बनी, लेकिन 1991 के चुनावी मुद्दे की पृष्ठ भूमि में मंडल कमंडल की राजनीति रही। 1989 में वी.पी. सिंह के नेतृत्व में जिस तरह से चन्द्रशेखर सिंह के विरोध के बाद सरकार का गठन हुआ था। उसको देखते हुए यह माना जा रहा था कि इस सरकार का भविष्य बहुत ज्यादा नहीं है। जैसी संभावना थी घटनाक्रम उसी अनुसार घटे। देवीलाल पिछड़े को एक जुट करने के लिए हरियाणा में रैली आयोजन किया था। पिछड़ो की रैली को कमजोर करने के लिए आनन-फानन में वी.पी.सिंह ने धूल चाट रही मंडल रिपोर्ट को लागू कर दिया। इस रिपोर्ट के लागू होने के बाद पूरे देश में तूफान खड़ा हो गया। अगड़ो के बीच विश्वविद्यालयों व अन्य स्थानों पर सीधे लड़ाई छिड़ गयी। कई बच्चों ने आत्मदाह भी किया। हालत की नाजुकता को भांपते हुए भाजपा ने वी.पी.सिंह सरकार में समर्थन वापस लिया आैर मंडल के खिलाफ कमंडल का सहारा लिया। लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा शुरू की। पूरे देश में धार्मिक उन्माद पैदा हो गया। कई स्थानों पर दंगे हुए। केन्द्र में भाजपा समर्थन वापसी के बाद चन्द्रशेखर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस समर्थन सरकार बनी। उत्तर प्रदेश में भी जनता दल का विभाजन हुआ लेकिन कांग्रेस के समर्थन से मुलायम सिंह यादव अपनी सरकार बचाने में कामयाब रहे। दिसम्बर 1989 से 24 जून 1991 भाजपा के सरकार के गठन तक उत्तर प्रदेश में पूरी तरह से अयोध्या में मंदिर निर्माण को लेकर धार्मिक उन्माद की स्थिति बनी रही। कई शहरों में दंगे हुए। रथयात्रा को बिहार में लालू प्रसाद यादव ने रोका। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने 45 दिनों में 48 रैलियां करके जगह-जगह जोशीले भाषण दिए कि अयोध्या में परिन्दा पर नही मार पाएगा। एक ऐसा माहौल बना दिया कि बहुसंख्यक एवं अल्पसंख्यकों के बीच खाई गहरी हो गयी। भाजपा एवं संघ परिवार ने मुलायम सिंह यादव के इन भाषणों का खूब लाभ उठाया आैर बहुमत की सरकार बनी। इस प्रकार मंडल पर कमंडल की विजय हुई। कल्याण सिह मुख्यमंत्री बने, लेकिन श्री सिंह मुख्यमंत्री बनने के बाद 6 दिसम्बर 1992 से सरकार बर्खस्तगी तक अयोध्या मुद्दे के ही इर्द-गिर्द घूमने रहे। 1991 में अयोध्या मंडल-कमंडल विवाद तथा केन्द्र में सिपाही जासूसी को लेकर कांग्रेस ने चन्द्रशेखर सिंह सरकार से अौर मुलायम सिंह यादव सरकार में आयी। दोनों चुनाव एक साथ हुए। यह चुनाव कांग्रेस के लिए दुखद रहा। चुनाव के दौरान 21 मई 1991 को राजीव गांधी की हत्या हो गयी। 1991 चुनाव में धार्मिक उन्माद एवं मंडल कमंडल के बीच होने के बाद भी बसपा पर कोई फर्क नही पड़ा। 1989 की तुलना में मत प्रतिशत बढ़ा। इन चुनाव में बसपा को 9.52 प्रतिशत मत एवं 12 सीटे मिली, जबकि भाजपा 31.80 प्रतिशत मत पाकर 211 सीटों पर सफलता अर्जित किया। 17.70 प्रतिशत मत पाकर कांग्रेस को 46 सीटें मिली। सबसे खराब स्थिति मुलायम सिंह यादव के (तत्कालीन जनता पार्टी) की रही। श्री यादव को सत्ता में रहते हुए चुनाव में 12.45 मत मिलें आैर मात्र 30 सीटें मिली। श्री यादव 411 पर चुनाव लड़े थे। उत्तराचंल सहित 425 सीटें थी।
1993 विधानसभा चुनाव:-
1991 में हाशिए पर जाने के बाद मुलायम सिंह यादव ने बड़े ही चतुराई से बसपा को पकड़ करके साइकिल के साथ हाथी को दौड़ाया। डेढ़ साल के अन्तराल में खोई हुई राजनीतिक जमीन को फिर हथियाने में सफल रहे आैर बसपा के गठजोड़ से 4 दिसम्बर 1993 को दूसरी बार मुलायम सिंह यादव ने प्रदेश के मुखिया की कमान संभाली। यहां यह जानकारी देना उचित है कि 1989 के बाद भाजपा के रथयात्रा के दौरान जो धार्मिक उन्माद पैदा हुआ था जिसका लाभ भाजपा ने उठाया। इस उन्माद को श्री यादव ने दलित-पिछड़े गठजोड़ से तोड़ दिया। 24 जून 1991 को सरकार गठन के बाद से 6 दिसम्बर 1992 को सरकार बर्खास्तगी तक उत्तर प्रदेश में केवल मंदिर एजेंडा बना रहा। रामलला हम आएंगे मंदिर वहीं बनाएंगे। नारे बार-बार गूँजते रहे। विश्व हिन्दू परिषद ने कई बार आन्दोलन की तिथि तय की आैर स्थागित की, लेकिन 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में विवादित मंदिर का ढांचा गिरा आैर तब नरसिम्हा राव चेते आैर भाजपा की उ.प्र. सहित चार राज्यों की सरकार को बर्खास्त कर दिया आैर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन रहा। इस दौरान भाजपा ने मंदिर मुद्दे को फिर भुनाने का प्र्यास किया लेकिन सफलता नहीं मिली क्योंकि उत्तर प्रदेश में एक चुनाव में एक ही चुनावी मुद्दा चलता है। इस चुनाव में सपा-बसपा गंठबंधन से जातीय समीकरण मुद्दा बना आैर चुनावी सफलता अर्जित किया। सपा 264 सीटों पर चुनाव लड़ी और 17.82 प्रतिशत मत पाकर 109 सीटों पर सफलता अर्जित किया जबकि बसपा 163 सीटों पर चुनाव लड़ी आैर 67 सीटों पर 11.11 प्रतिशत मत पाकर सफ ल रही। इस प्रकार सपा जो 1991 में हाशिए पर चली गयी थी। 12.54 प्रतिशत मत पाकर मात्र 30 सीटें मिली थी। उसके मत प्रतिशत में 5 प्रतिशत से अधिक आैर सीटों में तीन गुना से ज्यादा बढ़ोतरी हुई। बसपा को भी गठबंधन का काफी लाभ मिला उसकी सीटे 12 से बढ़कर 67 हो गयी। 55 सीटों का लाभ मिला, जबकि कांग्रेस को 15.7 प्रतिशत मत मिला आैर 28 सीटों पर सफलता मिली। लेकिन गठबंधन ज्यादा दिन तक नहीं चला आैर 2 जून 1985 की घटना के बाद राजनीति समीकरण बदलें आैर भाजपा के समर्थन से पहली बार उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार सुश्री मायावती के नेतृत्व में बनी लेकिन चार माह के अन्तराल 17.10.1985 को सरकार से भाजपा ने समर्थन वापस लिया आैर 18.10.1985 से एक बार फिर राष्ट्रपति शासन लगा।
1996 विधानसभा चुनाव:-
1993 विधानसभा चुनाव में जातीय ध्रुवीकरण ताक 1991 मंदिर मुद्दा चल गया था इसलिए इसकी पुनरावृत्ति 1996 में नही हुई। 1996 में एक बार फिर नया मुद्दा उभर कर सामने आया। इस चुनाव में बसपा ने कांग्रेस से समझौता किया आैर साम्प्रदायिकता के खिलाफ एक नारा देकर चुनाव लड़ा गया। इस चुनाव में भी 1993 की तरह 1996 में भाजपा सबसे बड़े दल 175 सीटें पाकर रहा आैर मत प्रतिशत 3.51 रहा, बसपा 19.65 प्रतिशत मत पाकर 67 सीटें जीतने में सफलता रही, जबकि कांग्रेस 8.35 प्रतिशत पाकर मात्र 33 सीटों पर चुनाव जीता। सपा को 110 सीटे 21.80 प्रतिशत मत मिलें। 1996 चुनाव में बसपा ने कांग्रेस गठबंधन के साथ मैदान में उतरी, लेकिन चुनाव के बाद किसी को बहुमत न मिलने के कारण 17 अक्टूबर 1996 को फिर राष्ट्रपति शासन लगा जो 21 मार्च 1997 तक चला। इसके बाद फिर राजनीतिक समीकरण बदले आैर भाजपा एवं बसपा में 6-6 माह सरकार चलाने का समझौता हुआ। प्रथम चरण में मुख्यमंत्री के रूप में भाजपा समर्थन से मायावती ने दूसरी बार कमान संभाली आैर 6 माह 21 मार्च 1997 से 1 सितम्बर 1997 तक गठबंधन की सरकार चलायी, लेकिन समझौता चल नहीं पाया। दलित एक्ट को लेकर उठे विवाद के कारण बसपा ने समर्थन वापस लिया, बसपा को ही तोड़कर भाजपा सदन में काफी खून-खराबे के बीच अपना बहुमत सिद्ध करने में कामयाब रही आैर 12.11.1999 को कुर्सी छोड़ी आैर राम प्रकाश गुप्त को प्रदेश की कमान सौप दी,लेकिन श्री गुप्ता 28.10.2000 तक ही मुख्यमंत्री रहे। लेकिन फिर भाजपा के अर्न्तकलह के कारण राम प्रकाश गुप्ता को हटाना पड़ा आैर 28.10.2000 को राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बने जो 8 मार्च 2002 तक रहे। 1996 के चुनाव के बाद राष्ट्रपति शासन आैर फिर बसपा-भाजपा के समझौते की सरकार में लोकतंत्र कलंकित हुआ। विधानसभा में जनप्रतिनिधियों के बीच विश्वासमत के दौरान खूनी संघर्ष हुआ। जिसमें कई विधायक घायल भी हुए। प्रदेश के इतिहास में पहली बार 103 विधायको की टीम में से 100 विधायकों को मंत्री की कुर्सी मिली जोकि एक रिकार्ड है। इस चुनाव के कई ऐसे विधायक मंत्री बन गये जिन्हें जैसे राजनीति दल संगठन में भी पद देने से कतराते रहे। 9 नवम्बर को उत्तराचंल का गठन हुआ। जिसमें 425 सीटें घटकर 403 रह गयी।
2002 विधानसभा चुनाव:-
कारनामा- राजनाथ सिंह का जम्बोजेट (150 सदस्यी मंत्रिमंडल) बना चुनावी मुद्दा:- पूर्व चुनावों की तरह 2002 के विधानसभा चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह के घोषणाओं के एवं सरकार बनाने के दावे के बीच भाजपा में अर्न्तकलह थी। वही पर जम्बों जेट मंत्रिमंडल के आततायी रवैये से जनता परेशान थी लेकिन इसके विकल्प के रूप में एक दल सामने नही था जिसके कारण चुनाव परिणाम किसी दल के पक्ष में नही हुए जिससे सरकार बन सकें। अजित सिंह के साथ भाजपा ने मिलकर चुनाव लड़ा जिसमें भाजपा ने 86 सीटें जीती आैर चुनाव लड़ा था उसे 2.52 प्रतिशत मत मिले आैर 14 विधायक चुने गये। सपा 141 सीटों पर चुनाव जीत करके सबसे बड़े दल के रूप में उभरी आैर 25.38 प्रतिशत मत मिले थे जिसमें 1986 की तुलना में 4.5 प्रतिशत का इजाफा हुआ था।
बसपा के 1996 की तुलना में 4.5 प्रतिशत मत बढ़े आैर 23.18 प्रतिशत मत पाकर 98 सीटे पर कब्जा करने में सफल रही।कांग्रेस का भी 1.30 प्रतिशत मत बढ़ा लेकिन सीटें 25 रह गयी। भाजपा के सत्ता विरोधी लहर में 10.5 प्र्ातिशत मत कम हुए उसे 4.5 प्रतिशत सपा व बसपा आैर कांग्रेस को 1.30 प्र्ातिशत मिला।
सबसे बड़े दल के रूप में होने के कारण चुनाव परिणाम आने के तत्काल बाद सपा ने सरकार बनाने के लिए धरना दिया था। जिसमें एक विधायक को गोली मारी गयी थी, लेकिन केन्द्र में भाजपा की सरकार ने सपा की सरकार बनने के कारण 8 मार्च-2002 को प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा लेकिन दो माह के अन्तराल में एक बार फिर भाजपा ने बसपा को समर्थन दिया आैर 3 मई 2002 को उत्तर प्रदेश में सुश्री मायावती के नेतृत्व में बसपा-भाजपा की मिलीजुली सरकार बनी जो 29 सितम्बर 2003 तक चली। भाजपा से विवाद के कारण मायावती ने त्यागपत्र दिया आैर विधानसभा चुनाव कराने की सिफारिश की, लेकिन केन्द्र सरकार ने चुनाव की सिफारिस को नकारते हुए कांग्रेस रालोद व अन्य दलों के समर्थन से सपा की सरकार बनवा दिया। यहां पर विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि 3.5.2002 को बसपा-भाजपा की मिली जुली सरकार बनने के बाद से ही भाजपा में मंत्रिमंडल में शामिल होने को लेकर विरोध शुरु हो गया था। राजा भइया की टीम व अन्य तमाम विधायक सरकार बनने के बाद से ही असंतोष व्यक्त कर रहे थे। जिसका फायदा भी विपक्ष सपा ने उठाने का प्रयास किया, लेकिन सफल नही हुए थे। आैर मायावती के इस्तीफा देने के बाद से मौका मिल गया आैर बसपा/भाजपा के नाराज विधायकों को शामिल करके सपा ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने में सफल रही। इसमें विधायकों को तोड़ने एवं सरकार बनवाने मे अमर सिंह का सबसे महत्वपूर्ण रोल रहा। लेकिन इसी कांड ने मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की सरकार को 2007 के चुनाव में पतन के रास्ते पर पहंुचाया। सरकार बनने के बाद से उ.प्र. में जो तांडव शु डिग्री हुआ उसे देखते हुए 6 माह के अन्तराल में ही डिप्टी एस पी को बोनट पर धूमाना ऐसी तमाम घटनाएं घटित हुई जिससे जनता में जबर्दस्त आक्रोश हुआ। 29.08.2003 से लेकर 2007 में विधान सभा चुनाव की घोषण तक उत्तर प्रदेश में मुलायाम सिंह सरकार के खिलाफ ऐसा माहौल बना जिसका फायदा केवल बसपा को मिला। 2005 के पंचायत चुनाव में ग्राम पंचायत एवं शहरी निकायों में जमकर हुई अनिमितता से जनता की नाराजगी आैर भाजपा व कांग्रेस सपाकी सहयोगी सपा बन गयी थी। इसकी भी लाभ बसपा को मिला।
2007 विधानसभा चुनाव:-
पिछले चुनाव की तुलना में 2007 का विधानसभा चुनाव केवल अपराधियों एवं भ्रष्टाचार के खिलाफ था। यह नारा चढ़ गुण्डो की छाती पर मुहर लगाओं हाथी पर। हर एक की जुबान पर था। यादव/ठाकुर गठजोड़ से अपराधियों ने ताण्डव मचाया था उससे पूरी जनता त्रस्त थी थानों में तैनात जाति विशेष के दरोगा-सिपाही एक पार्टी के कार्यकरता के रूप में कार्य करते थे। एस.पी. ने दरोगा को पीटा/सी.ओ. को बोनट पर घुमाया। निठारी काण्ड/मुलायम सिंह यादव एवं उनके परिवार खिलाफ भ्रष्टाचार को लेकर उच्चतम न्यायालय में पी.आई.एल. तथा बसपा नेता मायावती का बयान कि सरकार आयी तो अपराधियों को सबक सिखायेगें। यह जोशिला भाषण ने उत्तर प्रदेश में एक ऐसा माहौल बना आैर ब्रह्मण/दलित गठजोड़ व साथ ही 3 से 4 प्रतिशत न्युट्रन मतदाताओं ने बसपा के समर्थन में मतदान किया। जिसका परिणाम यह रहा कि उत्तर प्रदेश में 1991 के बाद रिकार्ड टूटा आैर बसपा नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। बसपा का मत प्रतिशत 2002 में 23.18 प्रतिशत वह बढ़ करके 30.46 प्रतिशत हो गया जोकि 7.26 प्रतिशत अधिक था। बसपा को 206 सीटें मिली जबकि सपा सरकार में रहने के बाद भी सीटें बहुत कम हो गयी। 2003 में सपा सरकार बनने के बाद लगातार सभी दलो में विधायकों के तोड़-फोड़ करके 2007 में जब चुनाव हुआ उस समय सपा सदस्यों की संख्या 236 हो गयी थी। आैर पूर्ण बहुमत था। इसलिए कांग्रेस व अन्य किसी दल को कोई दबाव नही रह गया था। आैर सपा सरकार मनमाने तरीक से अपना कार्य करती रही। 2004 को टी.वी. राजेश्वर को राज्यपाल की कुर्सी सौपी गयी। मुलायम सिंह यादव के खिलाफ छिड़े मुहिम में राजभवन की भी सक्रिय रही। हर हफ्ते राजभवन से सरकार के कार्यो की रिपोर्ट केन्द्र को जानी थी आैर इस रिपोर्ट का मीडिया से भी काफी प्रचार-प्रसार किया गया आैर पहली बार सात चरणों में चुनाव हुए जिसमें प्रथम चरण का मतदान 7 अप्रैल तो सातवें व अंतिम चरण का मतदान 8 मई 2007 को हुआ। इस प्रकार पूरे एक माह तक सात चरणों में केन्द्रीय सुरक्षा बलों के बीच मतदान सम्पन्न हुए जिसका लाभ बसपा को मिला। मतदान केन्द्र दलित बस्तियों में बनायें गये। इसका भी लाभ मिला। इस प्रकार 2007 का चुनाव की राजनीतिक व अन्य परिस्थितियां बसपा के पक्ष में रही जिसका फायदा मिला आैर बहुमत की सरकार बनी। लेकिन इन परिस्थितियों व राजनीतिक समीकरण के साथ भी सपा का मत प्रतिशत घटा नही बल्कि 0.13 प्रतिशत बढ़ा। हालांकि सीटे घटकर 97 रह गयी। भाजपा का ग्राफ गिरता गया आैर उसका मत प्रतिशत 20.03 से घट कर16.93 रह गया आैर 4 प्रतिशत मतों की कमी हुई। इन मतों में इस 2.5 प्रतिशत मतदाता ब्राह्मण थे जो सीधे बसपा से जुड़ गये थे जबकि 1.5 प्रतिशथ मतदाता अन्य वर्ग के शािमल थे जिन्होने बसपा के समर्थन मे मतदाना किया। कांग्रेस तमाम प्रयास व हथकंडे अपनाने के बाद भी 25 सीटों से घटकर 22 सीटों पर सिमटकर रह गयी आैर मत प्रतिशत भी 1/2 प्रतिशत कम हुआ। रालोद का मत प्रतिशत 2.52 से बढ़कर 3.71 हुआ, लेकिन सीटें 14 घटकर मात्र 10 रह गयी। इस प्रकार 2007 का चुनाव बसपा के पक्ष में रहा।
विधान सभा चुनाव-2012:-
विधानसभा चुनाव 2012 में नये परिसीमन के बाद िवधान सभा क्षेत्र के जातीय/धार्मिक एवं राजनीतिक समीकरण बदल गये हैं। पिछड़े विधान सभा चुनाव में 70 से अधिक विधान सभाएं ऐसी थी जिनकी आबादी 15 लाख से भी अधिक थी आैर 107 विधान सभा ऐसी थी जिनकी आबादी 03 से 04 लाख थी। नये परिसीमन में 403 विधानसभाओं के आबादी लगभग बराबर हो गयी है। अब आैसत जनसंख्या साढ़े चार लाख हो गयी है इस नये परिसीमन से सभी विधान सभा क्षेत्रों में बदलाव आया है। जिससे सभी विधान सभा क्षेत्रो का राजनीतिक समीकरण बदल गया है। नये परिसीमन पर हो रहे है। 2012 के पहली बार विधान सभा चुनाव में मुद्दे गत विधान सभा चुनावों से अलग है। इस चुनाव मायावती सरकार का भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा है। जिस तरह लखनऊ से लेकर नोयडा तक मूर्ति/पार्क एवं स्मारक में अरबों रूपये खर्च किये गये हैं। उससे प्रदेश की जनता में बसपा के प्राति आक्रोश है। यहां तक बसपा समर्थन भी मायावती के स्मारक एवं पार्क में अरबों रूपये खर्च करने के खिलाफ है। इसके अलावा बसपा ने 2007 में सपा सरकार के गुण्डा-गर्दी एवं बढ़ते अपराध के खिलाफ मुहिम चला करके सरकार बनायी थी। बसपा सरकार मे भी वही स्थिति बन गयी है। सपा सरकार के बाहुलबली नेता समय देखते हुए पैसा देकर बसपा में शामिल हो गये आैर साइकिल झण्डा बदलकर हाथी का झण्डा लगा लिया, लेकिन उनके चाल-चरित्र में बदलाव नहीं आया। बसपा सरकार के पांच वर्ष कार्यकाल में एन.आर.एच.एम. घोटाला, दो-दो मुख्य चिकित्साधिकारियों की में हत्या, खनन घोटाला आबकारी घोटाला आैर स्मारको एवं पार्को के निर्माण में अरबों रुपये के घोटाले से जनता में बसपा के प्रति नाराजगी है। दूसरी जिस तरह से 2005 सपा सरकार में पंचायतों के चुनाव में प्रधान, ब्लाक प्रमुख एवं जिला पंचायत अध्यक्ष पदों पर धन-बल के आधार पर कब्जा किया था वही तरीका बाहुबली नेताओं ने बसपा सरकार में भी अपनाया। इसी तरह विधान परिषद चुनाव व अन्य चुनावों में भी बसपा सरकार में पिछली सरकार की तरह बाहुबलयों ने तांडव किया। जिस ब्राह्मण-दलित समीकरण की हवा बना करके बसपा को बहुमत मिला था वह समीकरण भी टूट गया। इसलिए 2012 चुनाव में नया समीकरण भ्रष्टाचार का मुद्दा बन गया है। बसपा के खिलाफ जनता की नाराजगी का लाभ सपा को मिलता जा रहा है, क्योंकि भाजपा एवं कांग्रेस के कमजोर नेतृत्व में एवं प्रादेश में बसपा सरकार के खिलाफ बयान बाजी तक समिति होकर अपनाया गया रवैया
भी सपा के आक्रमक तेवर के पक्ष में जा रहा है। सपा ने युवा चेहरा अखिलेश यादव को प्रदेश संगठन की कमान सौंपी उससे युवाओं ने सपा के प्रति रूझान बढ़ी है। इसके
अलावा बसपा सरकार के भ्रष्टाचार आरोपी मंत्री बाबू सिंह कुशवहां को भाजपा में शामिल कर लिया दूसरी तरफ अखिलेश यादव ने बाहुबली डी.पी.यादव को सपा में शामिल
करने में मना कर दिया यह भी 2012 में चुनावी मुद्दा बन गया। भाजपा एवं कांग्रेस का कमजोर नेतृत्व एवं दिशावहीन चुनावी रणनीति तथा बसपा सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता की नाराजगी का लाभ अप्रत्याशित रूप से सपा को मिल गया आैर 2007 बसपा की तरह 2012 में बसपा के विकल्प के रुप में सपा ने 224 सीट एवं 29.15 मत पाकर अखिलेश यादव के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी। बसपा 80 सीट मत 25.91 भाजपा का मत 15 प्रतिशत 47 सीट तथा कांग्रेस 11.63 मत एवं 28 सीट पर सिमट गयी। अजित सिंह पार्टी अपने गढ़ से 09 सीटों तक सीमित रही। छोटे-छोटे दल पीस पार्टी-04, कौमी एकता दल- 02, एन.सी.पी.- 01, अपना दल-
01, आई.ई.एम.सी. को एक आैर 06 निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव जीते। इस प्रकार 2012 का चुनावी मुद्दा एवं चुनाव परिणाम दोनों ही पिछले चुनावों से अलग रहे।
विधान सभा चुनाव-2017
विधानसभा चुनावो में निरन्तर मुद्दे बदलते रहे है। एक चुनाव में एक ही मुद्दा चलता है दूसरे चुनाव में मुद्दा रिपीट नहीं होता। 2017 में अभी तक जो राजनीति समीकरण आैर विभिन्न दलों की चुनावी तैयारी चल रही उसको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि चुनावी मुद्दा विकास, भ्रष्टाचार, जातिवाद एवं स्थिर सरकार देने का होगा। जिस तरह से प्रमुख राजनीतिक दल सपा, बसपा, भाजपा एवं कांग्रेस ने धार्मिक जातीय समीकरण के आधार पर नेताओं को जिम्मेदारी दी है उसे देखते हुए यह स्पष्ट है कि चुनावी मुद्दा दिखाने के लिए विकास, भ्रष्टाचार होगा लेकिन असली मुद्दा जातीय एवं धार्मिक ध्रुवीकरण का होगा। 2012 के बाद नये परिसीमन पर दूसरी बार चुनाव हो रहे है। इस चुनाव एवं प्रदेश में राजनीतिक हालात में काफी बदलाव है। देश में भाजपा पूर्ण बहुमत की सरकार नरेन्द्र मोदी ने नेतृत्व में चल रही है तो उत्तर प्रदेश में सपा सरकार का नेतृत्व युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कर रहे है। बसपा मुखिया मायावती का पिछले दिनों का चढ़ता ग्राफ बसपा के बड़े नेताओं स्वामी प्रसाद मौर्य, आर.के. चौधरी द्वारा टिकट बेचने का मायावती पर लगाया गया आरोप से बसपा ग्राफ गिरा है। तीनो दल अति- पछड़े मतदाताओं को जोड़ने के लिए प्रयासरत है। सपा एवं बसपा अल्पसंख्यक मतों को जोड़ने में जुटी है वसपा ने 116 से अधिक अल्पसंख्यक टिकट दिये है। तो सपा भी सरकारी लाभ एवं पद देकर अल्पसंख्यको को जोड़ने में जुटी है। भाजपा की रणनीति बना रही है कि अति पिछड़ी के साथ-साथ सवर्ण मतों को भी जोड़ा जाए। इन तीनो दलों के विपरीत गत 27 वर्षो से सत्ता से बाहर कांग्रेस ने पहली बार आक्रामक राजनीतिक पहल किया है। परम्परागत नेताओं के सुझावों को दल किनार करके सवर्ण मतो को कांग्रेस से जोड़ने के साथ अल्पसंख्यक मतों पर निगाह है। कांग्रेस अपने बजूद के लिए उत्तर प्रदेश में 1989 के बाद पहली बार ऐसी पहल किया है जिससे कांग्रेसी कार्यकर्त्ता उत्साहित दिख रहे है। भीड़ जुटाने के लिए फिल्म अभिनेता राजबब्बर को प्रदेश अध्यक्ष, ब्राह्मण को जोड़ने के लिए शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री प्रत्याशी/ठाकुर/ब्राह्मण एवं पिछड़े दलित व अल्पसंख्यक मतों को जोड़ने के लिए उत्तर प्रदेश के सभी बड़े नेताओं को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौपी है। इन जिम्मेदारियों के अलावा प्रिंयका गांधी को नाम भी आगे बढ़ाया जा रहा है आैर छोटे-छोटे दलों के महागठबन्धन की तैयारी हो रही है। इस प्रकार आने वाले महीनो में प्रदेश की राजनीतिक में जातीय/धार्मिक ध्रुबीकरण का मुद्दा परदे के पीछे आैर राजनीतिक दलों के रणनीति अहम का हिस्सा होगा लेकिन दिखाने के लिए साम्प्रदायिकता, विकास, भ्रष्टाचार आैर कानून व्यवस्था मुद्दा पर राजनीतिक दलों की बयान बाजी व चुनावी रैलियां होगी। मुख्यमंत्री प्रात्याशी के रूप अखिलेश यादव अन्य मुख्यमंत्री दावेदारों पर भारी है। आने वाले समय में भाजपा किस मुख्यमंत्री का चेहरा प्रोजेक्ट करती है या बिना मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित किये चुनाव लड़ती है। जिस तरह ल सपा बसपा एवं कांग्रेस में अल्पसंख्यक मतो को जोड़ने की प्रति-स्र्धा चल रही है उसे देखते हुए इन तीनों दलो के घोषण पर धार्मिक/जातीय मतदाताओ को रिझाने वाले होगें। फिलहाल 2017 का उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव सपा, भाजपा, कांग्रेस एवं बसपा के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसलिए जीत हासिलम करने के लिए अप्रत्याशित मुद्दे भी सामने आ सकते है।
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URID MEDIA GROUP
यूरिड सर्वे-2
चुनाव में बदलते रहे मुद्दे--
अब तक हुए विधान सभाओं के चुनाव में हर बार चुनावी मुद्दों ने अपना अलग रूप दिखलाया है। वर्ष 1989 से प्रदेश में शुरू हुआ गैर कांग्रेस सरकार का दौर अब तक जारी है। इन 27 वर्षों में सात चुनाव हुए जिसमें 3 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। पूर्ण बहुमत की तीन सरकारों में वर्ष 1991 कल्याण सिंह की सरकार, डेढ़ वर्ष का कार्यकाल ही पूरा कर पाई। वर्ष 2007 में बसपा और 2012 की सपा सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया। अब कुछ ही महीनों बाद विधानसभा का चुनाव होने वाला है। बदले परिवेश में जनता निर्णय करेगी की वो पूर्ण बहुमत की सरकार बनाती है या उसका रुझान क्या होगा? इन चुनाव परिणामों में सभी दलों के मत प्रतिशत एवं सेटों की संख्या में बदलाव आते रहे हैं।
1989 के बाद बनी सरकारें व उनके कार्यकाल |
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क्र.स.
|
मुख्यमंत्री |
कार्यकाल |
1-
|
मुलायम सिंह यादव |
05.12.1989 से 24.06.1991 |
2- |
कल्याण सिंह |
24.06.1991 से 06.12.1992 |
3- |
राष्ट्रपति शासन |
06.12.1992 से 04.12.1992 |
4- |
मुलायम सिंह यादव |
04.12.1993 से 03.06.1995 |
5- |
मायावती |
03.06.1995 से 17.10.1995 |
6- |
राष्ट्रपति शासन |
18.10.1995 से 21.03.1996 |
7-
|
राष्ट्रपति शासन |
18.10.1995 से 21.03.1997 |
8- |
मायावती |
21.03.1997 से 21.09.1997 |
9- |
कल्याण सिंह |
21.09.1997 से 12.11.1999 |
10-
|
रामप्रकाश गुप्ता |
12.11.1999 से 28.10.2000 |
11-
|
राजनाथ सिंह |
28.10.2000 से 08.03.2002 |
12- |
राष्ट्रपति शासन |
08.03.2002 से 03.05.2002 |
13- |
मायावती |
03.05.2002 से 28.08.2003 |
14 |
मुलायम सिंह यादव |
29.08.2003 से 13.05.2007 |
15- |
मायावती |
13.05.2007 से 15.03.2012 |
16- |
अखिलेश यादव |
15.03.2012 से वर्तमान |
बदलते चुनावी मुद्दे
विधानसभा चुनाव 1989:-
विधानसभा एवं लोकसभा का चुनाव गैर कांग्रेसी सरकार बनाने एवं विशेषकर बोफोर्स मुद्दे पर लड़ा गया। केन्द्र में वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल उ.प्र. में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में चुनाव लड़ गये। गैर कांग्रेसी नारे पर हुए चुनाव में भाजपा एवं जनता दल ने एक साथ खड़े होकर 415 सांसदों वाली भारी बहुमत की कांग्रेस की सरकार को धराशाही कर दिया। केन्द्र में भाजपा समर्थन से वीपी सिंह नेतृत्व में सरकार बनी। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में 5 सितम्बर 1989 को सरकार का गठन हुआ। इस चुनाव में कांग्रेसी 28 प्रतिशत मत पाकर 94 सीटों पर सिमट गयी, जबकि जनता दल ने 29.59 प्रतिशत मत पाकर 204 सीटों पर सफलता अर्जित किया। भाजपा 11.68 प्रतिशत पाकर 57 सीटों पर कब्जा करने में सफल रही, जबकि इस चुनाव की सबसे बड़ी विशेषता कांशीराम के नेतृत्व में गठित बसपा के एजेंडे को जनता में मान्यता प्रदान किया आैर पहली बार 9.33 प्रतिशत मद पाकर 13 सीटों पर हासिल की। इस चुनाव में निर्दलीयों की संख्या
काफी रही आैर 15.32 प्रतिशत मत के साथ 40 निर्दलीय सदस्य विधानसभा पहुंचे। इन निर्दलीयों में एक दर्जन बाहुबली विधायक शामिल रहे। 1989 के चुनाव में लोकदल (बी) नाम से बने दल ने 204 सीटों पर चुनाव लड़ा मात्र 120 प्रतिशत मत पाकर दो सीटे हथियाने में सफल रहा, जबकि अजीत सिंह जनता दल के महत्वपूर्ण नेता की पंक्ति में शामिल थे।
विधानसभा एवं लोकसभा का चुनाव गैर कांग्रेसी सरकार बनाने एवं विशेषकर बोफोर्स मुद्दे पर लड़ा गया। केन्द्र में वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल उ.प्र. में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में चुनाव लड़ गये। गैर कांग्रेसी नारे पर हुए चुनाव में भाजपा एवं जनता दल ने एक साथ खड़े होकर 415 सांसदों वाली भारी बहुमत की कांग्रेस की सरकार को धराशाही कर दिया। केन्द्र में भाजपा समर्थन से वीपी सिंह नेतृत्व में सरकार बनी। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में 5 सितम्बर 1989 को सरकार का गठन हुआ। इस चुनाव में कांग्रेसी 28 प्रतिशत मत पाकर 94 सीटों पर सिमट गयी, जबकि जनता दल ने 29.59 प्रतिशत मत पाकर 204 सीटों पर सफलता अर्जित किया। भाजपा 11.68 प्रतिशत पाकर 57 सीटों पर कब्जा करने में सफल रही, जबकि इस चुनाव की सबसे बड़ी विशेषता कांशीराम के नेतृत्व में गठित बसपा के एजेंडे को जनता में मान्यता प्रदान किया आैर पहली बार 9.33 प्रतिशत मद पाकर 13 सीटों पर हासिल की। इस चुनाव में निर्दलीयों की संख्या
काफी रही आैर 15.32 प्रतिशत मत के साथ 40 निर्दलीय सदस्य विधानसभा पहुंचे। इन निर्दलीयों में एक दर्जन बाहुबली विधायक शामिल रहे। 1989 के चुनाव में लोकदल (बी) नाम से बने दल ने 204 सीटों पर चुनाव लड़ा मात्र 120 प्रतिशत मत पाकर दो सीटे हथियाने में सफल रहा, जबकि अजीत सिंह जनता दल के महत्वपूर्ण नेता की पंक्ति में शामिल थे।
विधानसभा चुनाव 1991:-
वर्ष 1991 के विधानसभा चुनाव धार्मिक उन्माद के बीच सम्पन्न हुआ। जिसमें भाजपा को पहली बार बहुमत सरकार बनाने का मौका मिला। कल्याण सिंह के नेतृत्व में 24 जून 1991 को भाजपा की बहुमत की सरकार बनी, लेकिन 1991 के चुनावी मुद्दे की पृष्ठ भूमि में मंडल कमंडल की राजनीति रही। 1989 में वी.पी. सिंह के नेतृत्व में जिस तरह से चन्द्रशेखर सिंह के विरोध के बाद सरकार का गठन हुआ था। उसको देखते हुए यह माना जा रहा था कि इस सरकार का भविष्य बहुत ज्यादा नहीं है। जैसी संभावना थी घटनाक्रम उसी अनुसार घटे। देवीलाल पिछड़े को एक जुट करने के लिए हरियाणा में रैली आयोजन किया था। पिछड़ो की रैली को कमजोर करने के लिए आनन-फानन में वी.पी.सिंह ने धूल चाट रही मंडल रिपोर्ट को लागू कर दिया। इस रिपोर्ट के लागू होने के बाद पूरे देश में तूफान खड़ा हो गया। अगड़ो के बीच विश्वविद्यालयों व अन्य स्थानों पर सीधे लड़ाई छिड़ गयी। कई बच्चों ने आत्मदाह भी किया। हालत की नाजुकता को भांपते हुए भाजपा ने वी.पी.सिंह सरकार में समर्थन वापस लिया आैर मंडल के खिलाफ कमंडल का सहारा लिया। लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा शुरू की। पूरे देश में धार्मिक उन्माद पैदा हो गया। कई स्थानों पर दंगे हुए। केन्द्र में भाजपा समर्थन वापसी के बाद चन्द्रशेखर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस समर्थन सरकार बनी। उत्तर प्रदेश में भी जनता दल का विभाजन हुआ लेकिन कांग्रेस के समर्थन से मुलायम सिंह यादव अपनी सरकार बचाने में कामयाब रहे। दिसम्बर 1989 से 24 जून 1991 भाजपा के सरकार के गठन तक उत्तर प्रदेश में पूरी तरह से अयोध्या में मंदिर निर्माण को लेकर धार्मिक उन्माद की स्थिति बनी रही। कई शहरों में दंगे हुए। रथयात्रा को बिहार में लालू प्रसाद यादव ने रोका। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने 45 दिनों में 48 रैलियां करके जगह-जगह जोशीले भाषण दिए कि अयोध्या में परिन्दा पर नही मार पाएगा। एक ऐसा माहौल बना दिया कि बहुसंख्यक एवं अल्पसंख्यकों के बीच खाई गहरी हो गयी। भाजपा एवं संघ परिवार ने मुलायम सिंह यादव के इन भाषणों का खूब लाभ उठाया आैर बहुमत की सरकार बनी। इस प्रकार मंडल पर कमंडल की विजय हुई। कल्याण सिह मुख्यमंत्री बने, लेकिन श्री सिंह मुख्यमंत्री बनने के बाद 6 दिसम्बर 1992 से सरकार बर्खस्तगी तक अयोध्या मुद्दे के ही इर्द-गिर्द घूमने रहे। 1991 में अयोध्या मंडल-कमंडल विवाद तथा केन्द्र में सिपाही जासूसी को लेकर कांग्रेस ने चन्द्रशेखर सिंह सरकार से अौर मुलायम सिंह यादव सरकार में आयी। दोनों चुनाव एक साथ हुए। यह चुनाव कांग्रेस के लिए दुखद रहा। चुनाव के दौरान 21 मई 1991 को राजीव गांधी की हत्या हो गयी। 1991 चुनाव में धार्मिक उन्माद एवं मंडल कमंडल के बीच होने के बाद भी बसपा पर कोई फर्क नही पड़ा। 1989 की तुलना में मत प्रतिशत बढ़ा। इन चुनाव में बसपा को 9.52 प्रतिशत मत एवं 12 सीटे मिली, जबकि भाजपा 31.80 प्रतिशत मत पाकर 211 सीटों पर सफलता अर्जित किया। 17.70 प्रतिशत मत पाकर कांग्रेस को 46 सीटें मिली। सबसे खराब स्थिति मुलायम सिंह यादव के (तत्कालीन जनता पार्टी) की रही। श्री यादव को सत्ता में रहते हुए चुनाव में 12.45 मत मिलें आैर मात्र 30 सीटें मिली। श्री यादव 411 पर चुनाव लड़े थे। उत्तराचंल सहित 425 सीटें थी।
वर्ष 1991 के विधानसभा चुनाव धार्मिक उन्माद के बीच सम्पन्न हुआ। जिसमें भाजपा को पहली बार बहुमत सरकार बनाने का मौका मिला। कल्याण सिंह के नेतृत्व में 24 जून 1991 को भाजपा की बहुमत की सरकार बनी, लेकिन 1991 के चुनावी मुद्दे की पृष्ठ भूमि में मंडल कमंडल की राजनीति रही। 1989 में वी.पी. सिंह के नेतृत्व में जिस तरह से चन्द्रशेखर सिंह के विरोध के बाद सरकार का गठन हुआ था। उसको देखते हुए यह माना जा रहा था कि इस सरकार का भविष्य बहुत ज्यादा नहीं है। जैसी संभावना थी घटनाक्रम उसी अनुसार घटे। देवीलाल पिछड़े को एक जुट करने के लिए हरियाणा में रैली आयोजन किया था। पिछड़ो की रैली को कमजोर करने के लिए आनन-फानन में वी.पी.सिंह ने धूल चाट रही मंडल रिपोर्ट को लागू कर दिया। इस रिपोर्ट के लागू होने के बाद पूरे देश में तूफान खड़ा हो गया। अगड़ो के बीच विश्वविद्यालयों व अन्य स्थानों पर सीधे लड़ाई छिड़ गयी। कई बच्चों ने आत्मदाह भी किया। हालत की नाजुकता को भांपते हुए भाजपा ने वी.पी.सिंह सरकार में समर्थन वापस लिया आैर मंडल के खिलाफ कमंडल का सहारा लिया। लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा शुरू की। पूरे देश में धार्मिक उन्माद पैदा हो गया। कई स्थानों पर दंगे हुए। केन्द्र में भाजपा समर्थन वापसी के बाद चन्द्रशेखर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस समर्थन सरकार बनी। उत्तर प्रदेश में भी जनता दल का विभाजन हुआ लेकिन कांग्रेस के समर्थन से मुलायम सिंह यादव अपनी सरकार बचाने में कामयाब रहे। दिसम्बर 1989 से 24 जून 1991 भाजपा के सरकार के गठन तक उत्तर प्रदेश में पूरी तरह से अयोध्या में मंदिर निर्माण को लेकर धार्मिक उन्माद की स्थिति बनी रही। कई शहरों में दंगे हुए। रथयात्रा को बिहार में लालू प्रसाद यादव ने रोका। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने 45 दिनों में 48 रैलियां करके जगह-जगह जोशीले भाषण दिए कि अयोध्या में परिन्दा पर नही मार पाएगा। एक ऐसा माहौल बना दिया कि बहुसंख्यक एवं अल्पसंख्यकों के बीच खाई गहरी हो गयी। भाजपा एवं संघ परिवार ने मुलायम सिंह यादव के इन भाषणों का खूब लाभ उठाया आैर बहुमत की सरकार बनी। इस प्रकार मंडल पर कमंडल की विजय हुई। कल्याण सिह मुख्यमंत्री बने, लेकिन श्री सिंह मुख्यमंत्री बनने के बाद 6 दिसम्बर 1992 से सरकार बर्खस्तगी तक अयोध्या मुद्दे के ही इर्द-गिर्द घूमने रहे। 1991 में अयोध्या मंडल-कमंडल विवाद तथा केन्द्र में सिपाही जासूसी को लेकर कांग्रेस ने चन्द्रशेखर सिंह सरकार से अौर मुलायम सिंह यादव सरकार में आयी। दोनों चुनाव एक साथ हुए। यह चुनाव कांग्रेस के लिए दुखद रहा। चुनाव के दौरान 21 मई 1991 को राजीव गांधी की हत्या हो गयी। 1991 चुनाव में धार्मिक उन्माद एवं मंडल कमंडल के बीच होने के बाद भी बसपा पर कोई फर्क नही पड़ा। 1989 की तुलना में मत प्रतिशत बढ़ा। इन चुनाव में बसपा को 9.52 प्रतिशत मत एवं 12 सीटे मिली, जबकि भाजपा 31.80 प्रतिशत मत पाकर 211 सीटों पर सफलता अर्जित किया। 17.70 प्रतिशत मत पाकर कांग्रेस को 46 सीटें मिली। सबसे खराब स्थिति मुलायम सिंह यादव के (तत्कालीन जनता पार्टी) की रही। श्री यादव को सत्ता में रहते हुए चुनाव में 12.45 मत मिलें आैर मात्र 30 सीटें मिली। श्री यादव 411 पर चुनाव लड़े थे। उत्तराचंल सहित 425 सीटें थी।
1993 विधानसभा चुनाव:-
1991 में हाशिए पर जाने के बाद मुलायम सिंह यादव ने बड़े ही चतुराई से बसपा को पकड़ करके साइकिल के साथ हाथी को दौड़ाया। डेढ़ साल के अन्तराल में खोई हुई राजनीतिक जमीन को फिर हथियाने में सफल रहे आैर बसपा के गठजोड़ से 4 दिसम्बर 1993 को दूसरी बार मुलायम सिंह यादव ने प्रदेश के मुखिया की कमान संभाली। यहां यह जानकारी देना उचित है कि 1989 के बाद भाजपा के रथयात्रा के दौरान जो धार्मिक उन्माद पैदा हुआ था जिसका लाभ भाजपा ने उठाया। इस उन्माद को श्री यादव ने दलित-पिछड़े गठजोड़ से तोड़ दिया। 24 जून 1991 को सरकार गठन के बाद से 6 दिसम्बर 1992 को सरकार बर्खास्तगी तक उत्तर प्रदेश में केवल मंदिर एजेंडा बना रहा। रामलला हम आएंगे मंदिर वहीं बनाएंगे। नारे बार-बार गूँजते रहे। विश्व हिन्दू परिषद ने कई बार आन्दोलन की तिथि तय की आैर स्थागित की, लेकिन 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में विवादित मंदिर का ढांचा गिरा आैर तब नरसिम्हा राव चेते आैर भाजपा की उ.प्र. सहित चार राज्यों की सरकार को बर्खास्त कर दिया आैर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन रहा। इस दौरान भाजपा ने मंदिर मुद्दे को फिर भुनाने का प्र्यास किया लेकिन सफलता नहीं मिली क्योंकि उत्तर प्रदेश में एक चुनाव में एक ही चुनावी मुद्दा चलता है। इस चुनाव में सपा-बसपा गंठबंधन से जातीय समीकरण मुद्दा बना आैर चुनावी सफलता अर्जित किया। सपा 264 सीटों पर चुनाव लड़ी और 17.82 प्रतिशत मत पाकर 109 सीटों पर सफलता अर्जित किया जबकि बसपा 163 सीटों पर चुनाव लड़ी आैर 67 सीटों पर 11.11 प्रतिशत मत पाकर सफ ल रही। इस प्रकार सपा जो 1991 में हाशिए पर चली गयी थी। 12.54 प्रतिशत मत पाकर मात्र 30 सीटें मिली थी। उसके मत प्रतिशत में 5 प्रतिशत से अधिक आैर सीटों में तीन गुना से ज्यादा बढ़ोतरी हुई। बसपा को भी गठबंधन का काफी लाभ मिला उसकी सीटे 12 से बढ़कर 67 हो गयी। 55 सीटों का लाभ मिला, जबकि कांग्रेस को 15.7 प्रतिशत मत मिला आैर 28 सीटों पर सफलता मिली। लेकिन गठबंधन ज्यादा दिन तक नहीं चला आैर 2 जून 1985 की घटना के बाद राजनीति समीकरण बदलें आैर भाजपा के समर्थन से पहली बार उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार सुश्री मायावती के नेतृत्व में बनी लेकिन चार माह के अन्तराल 17.10.1985 को सरकार से भाजपा ने समर्थन वापस लिया आैर 18.10.1985 से एक बार फिर राष्ट्रपति शासन लगा।
1991 में हाशिए पर जाने के बाद मुलायम सिंह यादव ने बड़े ही चतुराई से बसपा को पकड़ करके साइकिल के साथ हाथी को दौड़ाया। डेढ़ साल के अन्तराल में खोई हुई राजनीतिक जमीन को फिर हथियाने में सफल रहे आैर बसपा के गठजोड़ से 4 दिसम्बर 1993 को दूसरी बार मुलायम सिंह यादव ने प्रदेश के मुखिया की कमान संभाली। यहां यह जानकारी देना उचित है कि 1989 के बाद भाजपा के रथयात्रा के दौरान जो धार्मिक उन्माद पैदा हुआ था जिसका लाभ भाजपा ने उठाया। इस उन्माद को श्री यादव ने दलित-पिछड़े गठजोड़ से तोड़ दिया। 24 जून 1991 को सरकार गठन के बाद से 6 दिसम्बर 1992 को सरकार बर्खास्तगी तक उत्तर प्रदेश में केवल मंदिर एजेंडा बना रहा। रामलला हम आएंगे मंदिर वहीं बनाएंगे। नारे बार-बार गूँजते रहे। विश्व हिन्दू परिषद ने कई बार आन्दोलन की तिथि तय की आैर स्थागित की, लेकिन 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में विवादित मंदिर का ढांचा गिरा आैर तब नरसिम्हा राव चेते आैर भाजपा की उ.प्र. सहित चार राज्यों की सरकार को बर्खास्त कर दिया आैर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन रहा। इस दौरान भाजपा ने मंदिर मुद्दे को फिर भुनाने का प्र्यास किया लेकिन सफलता नहीं मिली क्योंकि उत्तर प्रदेश में एक चुनाव में एक ही चुनावी मुद्दा चलता है। इस चुनाव में सपा-बसपा गंठबंधन से जातीय समीकरण मुद्दा बना आैर चुनावी सफलता अर्जित किया। सपा 264 सीटों पर चुनाव लड़ी और 17.82 प्रतिशत मत पाकर 109 सीटों पर सफलता अर्जित किया जबकि बसपा 163 सीटों पर चुनाव लड़ी आैर 67 सीटों पर 11.11 प्रतिशत मत पाकर सफ ल रही। इस प्रकार सपा जो 1991 में हाशिए पर चली गयी थी। 12.54 प्रतिशत मत पाकर मात्र 30 सीटें मिली थी। उसके मत प्रतिशत में 5 प्रतिशत से अधिक आैर सीटों में तीन गुना से ज्यादा बढ़ोतरी हुई। बसपा को भी गठबंधन का काफी लाभ मिला उसकी सीटे 12 से बढ़कर 67 हो गयी। 55 सीटों का लाभ मिला, जबकि कांग्रेस को 15.7 प्रतिशत मत मिला आैर 28 सीटों पर सफलता मिली। लेकिन गठबंधन ज्यादा दिन तक नहीं चला आैर 2 जून 1985 की घटना के बाद राजनीति समीकरण बदलें आैर भाजपा के समर्थन से पहली बार उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार सुश्री मायावती के नेतृत्व में बनी लेकिन चार माह के अन्तराल 17.10.1985 को सरकार से भाजपा ने समर्थन वापस लिया आैर 18.10.1985 से एक बार फिर राष्ट्रपति शासन लगा।
1996 विधानसभा चुनाव:-
1993 विधानसभा चुनाव में जातीय ध्रुवीकरण ताक 1991 मंदिर मुद्दा चल गया था इसलिए इसकी पुनरावृत्ति 1996 में नही हुई। 1996 में एक बार फिर नया मुद्दा उभर कर सामने आया। इस चुनाव में बसपा ने कांग्रेस से समझौता किया आैर साम्प्रदायिकता के खिलाफ एक नारा देकर चुनाव लड़ा गया। इस चुनाव में भी 1993 की तरह 1996 में भाजपा सबसे बड़े दल 175 सीटें पाकर रहा आैर मत प्रतिशत 3.51 रहा, बसपा 19.65 प्रतिशत मत पाकर 67 सीटें जीतने में सफलता रही, जबकि कांग्रेस 8.35 प्रतिशत पाकर मात्र 33 सीटों पर चुनाव जीता। सपा को 110 सीटे 21.80 प्रतिशत मत मिलें। 1996 चुनाव में बसपा ने कांग्रेस गठबंधन के साथ मैदान में उतरी, लेकिन चुनाव के बाद किसी को बहुमत न मिलने के कारण 17 अक्टूबर 1996 को फिर राष्ट्रपति शासन लगा जो 21 मार्च 1997 तक चला। इसके बाद फिर राजनीतिक समीकरण बदले आैर भाजपा एवं बसपा में 6-6 माह सरकार चलाने का समझौता हुआ। प्रथम चरण में मुख्यमंत्री के रूप में भाजपा समर्थन से मायावती ने दूसरी बार कमान संभाली आैर 6 माह 21 मार्च 1997 से 1 सितम्बर 1997 तक गठबंधन की सरकार चलायी, लेकिन समझौता चल नहीं पाया। दलित एक्ट को लेकर उठे विवाद के कारण बसपा ने समर्थन वापस लिया, बसपा को ही तोड़कर भाजपा सदन में काफी खून-खराबे के बीच अपना बहुमत सिद्ध करने में कामयाब रही आैर 12.11.1999 को कुर्सी छोड़ी आैर राम प्रकाश गुप्त को प्रदेश की कमान सौप दी,लेकिन श्री गुप्ता 28.10.2000 तक ही मुख्यमंत्री रहे। लेकिन फिर भाजपा के अर्न्तकलह के कारण राम प्रकाश गुप्ता को हटाना पड़ा आैर 28.10.2000 को राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बने जो 8 मार्च 2002 तक रहे। 1996 के चुनाव के बाद राष्ट्रपति शासन आैर फिर बसपा-भाजपा के समझौते की सरकार में लोकतंत्र कलंकित हुआ। विधानसभा में जनप्रतिनिधियों के बीच विश्वासमत के दौरान खूनी संघर्ष हुआ। जिसमें कई विधायक घायल भी हुए। प्रदेश के इतिहास में पहली बार 103 विधायको की टीम में से 100 विधायकों को मंत्री की कुर्सी मिली जोकि एक रिकार्ड है। इस चुनाव के कई ऐसे विधायक मंत्री बन गये जिन्हें जैसे राजनीति दल संगठन में भी पद देने से कतराते रहे। 9 नवम्बर को उत्तराचंल का गठन हुआ। जिसमें 425 सीटें घटकर 403 रह गयी।
1993 विधानसभा चुनाव में जातीय ध्रुवीकरण ताक 1991 मंदिर मुद्दा चल गया था इसलिए इसकी पुनरावृत्ति 1996 में नही हुई। 1996 में एक बार फिर नया मुद्दा उभर कर सामने आया। इस चुनाव में बसपा ने कांग्रेस से समझौता किया आैर साम्प्रदायिकता के खिलाफ एक नारा देकर चुनाव लड़ा गया। इस चुनाव में भी 1993 की तरह 1996 में भाजपा सबसे बड़े दल 175 सीटें पाकर रहा आैर मत प्रतिशत 3.51 रहा, बसपा 19.65 प्रतिशत मत पाकर 67 सीटें जीतने में सफलता रही, जबकि कांग्रेस 8.35 प्रतिशत पाकर मात्र 33 सीटों पर चुनाव जीता। सपा को 110 सीटे 21.80 प्रतिशत मत मिलें। 1996 चुनाव में बसपा ने कांग्रेस गठबंधन के साथ मैदान में उतरी, लेकिन चुनाव के बाद किसी को बहुमत न मिलने के कारण 17 अक्टूबर 1996 को फिर राष्ट्रपति शासन लगा जो 21 मार्च 1997 तक चला। इसके बाद फिर राजनीतिक समीकरण बदले आैर भाजपा एवं बसपा में 6-6 माह सरकार चलाने का समझौता हुआ। प्रथम चरण में मुख्यमंत्री के रूप में भाजपा समर्थन से मायावती ने दूसरी बार कमान संभाली आैर 6 माह 21 मार्च 1997 से 1 सितम्बर 1997 तक गठबंधन की सरकार चलायी, लेकिन समझौता चल नहीं पाया। दलित एक्ट को लेकर उठे विवाद के कारण बसपा ने समर्थन वापस लिया, बसपा को ही तोड़कर भाजपा सदन में काफी खून-खराबे के बीच अपना बहुमत सिद्ध करने में कामयाब रही आैर 12.11.1999 को कुर्सी छोड़ी आैर राम प्रकाश गुप्त को प्रदेश की कमान सौप दी,लेकिन श्री गुप्ता 28.10.2000 तक ही मुख्यमंत्री रहे। लेकिन फिर भाजपा के अर्न्तकलह के कारण राम प्रकाश गुप्ता को हटाना पड़ा आैर 28.10.2000 को राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बने जो 8 मार्च 2002 तक रहे। 1996 के चुनाव के बाद राष्ट्रपति शासन आैर फिर बसपा-भाजपा के समझौते की सरकार में लोकतंत्र कलंकित हुआ। विधानसभा में जनप्रतिनिधियों के बीच विश्वासमत के दौरान खूनी संघर्ष हुआ। जिसमें कई विधायक घायल भी हुए। प्रदेश के इतिहास में पहली बार 103 विधायको की टीम में से 100 विधायकों को मंत्री की कुर्सी मिली जोकि एक रिकार्ड है। इस चुनाव के कई ऐसे विधायक मंत्री बन गये जिन्हें जैसे राजनीति दल संगठन में भी पद देने से कतराते रहे। 9 नवम्बर को उत्तराचंल का गठन हुआ। जिसमें 425 सीटें घटकर 403 रह गयी।
2002 विधानसभा चुनाव:-
कारनामा- राजनाथ सिंह का जम्बोजेट (150 सदस्यी मंत्रिमंडल) बना चुनावी मुद्दा:- पूर्व चुनावों की तरह 2002 के विधानसभा चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह के घोषणाओं के एवं सरकार बनाने के दावे के बीच भाजपा में अर्न्तकलह थी। वही पर जम्बों जेट मंत्रिमंडल के आततायी रवैये से जनता परेशान थी लेकिन इसके विकल्प के रूप में एक दल सामने नही था जिसके कारण चुनाव परिणाम किसी दल के पक्ष में नही हुए जिससे सरकार बन सकें। अजित सिंह के साथ भाजपा ने मिलकर चुनाव लड़ा जिसमें भाजपा ने 86 सीटें जीती आैर चुनाव लड़ा था उसे 2.52 प्रतिशत मत मिले आैर 14 विधायक चुने गये। सपा 141 सीटों पर चुनाव जीत करके सबसे बड़े दल के रूप में उभरी आैर 25.38 प्रतिशत मत मिले थे जिसमें 1986 की तुलना में 4.5 प्रतिशत का इजाफा हुआ था।
बसपा के 1996 की तुलना में 4.5 प्रतिशत मत बढ़े आैर 23.18 प्रतिशत मत पाकर 98 सीटे पर कब्जा करने में सफल रही।कांग्रेस का भी 1.30 प्रतिशत मत बढ़ा लेकिन सीटें 25 रह गयी। भाजपा के सत्ता विरोधी लहर में 10.5 प्र्ातिशत मत कम हुए उसे 4.5 प्रतिशत सपा व बसपा आैर कांग्रेस को 1.30 प्र्ातिशत मिला।
सबसे बड़े दल के रूप में होने के कारण चुनाव परिणाम आने के तत्काल बाद सपा ने सरकार बनाने के लिए धरना दिया था। जिसमें एक विधायक को गोली मारी गयी थी, लेकिन केन्द्र में भाजपा की सरकार ने सपा की सरकार बनने के कारण 8 मार्च-2002 को प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा लेकिन दो माह के अन्तराल में एक बार फिर भाजपा ने बसपा को समर्थन दिया आैर 3 मई 2002 को उत्तर प्रदेश में सुश्री मायावती के नेतृत्व में बसपा-भाजपा की मिलीजुली सरकार बनी जो 29 सितम्बर 2003 तक चली। भाजपा से विवाद के कारण मायावती ने त्यागपत्र दिया आैर विधानसभा चुनाव कराने की सिफारिश की, लेकिन केन्द्र सरकार ने चुनाव की सिफारिस को नकारते हुए कांग्रेस रालोद व अन्य दलों के समर्थन से सपा की सरकार बनवा दिया। यहां पर विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि 3.5.2002 को बसपा-भाजपा की मिली जुली सरकार बनने के बाद से ही भाजपा में मंत्रिमंडल में शामिल होने को लेकर विरोध शुरु हो गया था। राजा भइया की टीम व अन्य तमाम विधायक सरकार बनने के बाद से ही असंतोष व्यक्त कर रहे थे। जिसका फायदा भी विपक्ष सपा ने उठाने का प्रयास किया, लेकिन सफल नही हुए थे। आैर मायावती के इस्तीफा देने के बाद से मौका मिल गया आैर बसपा/भाजपा के नाराज विधायकों को शामिल करके सपा ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने में सफल रही। इसमें विधायकों को तोड़ने एवं सरकार बनवाने मे अमर सिंह का सबसे महत्वपूर्ण रोल रहा। लेकिन इसी कांड ने मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की सरकार को 2007 के चुनाव में पतन के रास्ते पर पहंुचाया। सरकार बनने के बाद से उ.प्र. में जो तांडव शु डिग्री हुआ उसे देखते हुए 6 माह के अन्तराल में ही डिप्टी एस पी को बोनट पर धूमाना ऐसी तमाम घटनाएं घटित हुई जिससे जनता में जबर्दस्त आक्रोश हुआ। 29.08.2003 से लेकर 2007 में विधान सभा चुनाव की घोषण तक उत्तर प्रदेश में मुलायाम सिंह सरकार के खिलाफ ऐसा माहौल बना जिसका फायदा केवल बसपा को मिला। 2005 के पंचायत चुनाव में ग्राम पंचायत एवं शहरी निकायों में जमकर हुई अनिमितता से जनता की नाराजगी आैर भाजपा व कांग्रेस सपाकी सहयोगी सपा बन गयी थी। इसकी भी लाभ बसपा को मिला।
कारनामा- राजनाथ सिंह का जम्बोजेट (150 सदस्यी मंत्रिमंडल) बना चुनावी मुद्दा:- पूर्व चुनावों की तरह 2002 के विधानसभा चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह के घोषणाओं के एवं सरकार बनाने के दावे के बीच भाजपा में अर्न्तकलह थी। वही पर जम्बों जेट मंत्रिमंडल के आततायी रवैये से जनता परेशान थी लेकिन इसके विकल्प के रूप में एक दल सामने नही था जिसके कारण चुनाव परिणाम किसी दल के पक्ष में नही हुए जिससे सरकार बन सकें। अजित सिंह के साथ भाजपा ने मिलकर चुनाव लड़ा जिसमें भाजपा ने 86 सीटें जीती आैर चुनाव लड़ा था उसे 2.52 प्रतिशत मत मिले आैर 14 विधायक चुने गये। सपा 141 सीटों पर चुनाव जीत करके सबसे बड़े दल के रूप में उभरी आैर 25.38 प्रतिशत मत मिले थे जिसमें 1986 की तुलना में 4.5 प्रतिशत का इजाफा हुआ था।
बसपा के 1996 की तुलना में 4.5 प्रतिशत मत बढ़े आैर 23.18 प्रतिशत मत पाकर 98 सीटे पर कब्जा करने में सफल रही।कांग्रेस का भी 1.30 प्रतिशत मत बढ़ा लेकिन सीटें 25 रह गयी। भाजपा के सत्ता विरोधी लहर में 10.5 प्र्ातिशत मत कम हुए उसे 4.5 प्रतिशत सपा व बसपा आैर कांग्रेस को 1.30 प्र्ातिशत मिला।
सबसे बड़े दल के रूप में होने के कारण चुनाव परिणाम आने के तत्काल बाद सपा ने सरकार बनाने के लिए धरना दिया था। जिसमें एक विधायक को गोली मारी गयी थी, लेकिन केन्द्र में भाजपा की सरकार ने सपा की सरकार बनने के कारण 8 मार्च-2002 को प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा लेकिन दो माह के अन्तराल में एक बार फिर भाजपा ने बसपा को समर्थन दिया आैर 3 मई 2002 को उत्तर प्रदेश में सुश्री मायावती के नेतृत्व में बसपा-भाजपा की मिलीजुली सरकार बनी जो 29 सितम्बर 2003 तक चली। भाजपा से विवाद के कारण मायावती ने त्यागपत्र दिया आैर विधानसभा चुनाव कराने की सिफारिश की, लेकिन केन्द्र सरकार ने चुनाव की सिफारिस को नकारते हुए कांग्रेस रालोद व अन्य दलों के समर्थन से सपा की सरकार बनवा दिया। यहां पर विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि 3.5.2002 को बसपा-भाजपा की मिली जुली सरकार बनने के बाद से ही भाजपा में मंत्रिमंडल में शामिल होने को लेकर विरोध शुरु हो गया था। राजा भइया की टीम व अन्य तमाम विधायक सरकार बनने के बाद से ही असंतोष व्यक्त कर रहे थे। जिसका फायदा भी विपक्ष सपा ने उठाने का प्रयास किया, लेकिन सफल नही हुए थे। आैर मायावती के इस्तीफा देने के बाद से मौका मिल गया आैर बसपा/भाजपा के नाराज विधायकों को शामिल करके सपा ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने में सफल रही। इसमें विधायकों को तोड़ने एवं सरकार बनवाने मे अमर सिंह का सबसे महत्वपूर्ण रोल रहा। लेकिन इसी कांड ने मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की सरकार को 2007 के चुनाव में पतन के रास्ते पर पहंुचाया। सरकार बनने के बाद से उ.प्र. में जो तांडव शु डिग्री हुआ उसे देखते हुए 6 माह के अन्तराल में ही डिप्टी एस पी को बोनट पर धूमाना ऐसी तमाम घटनाएं घटित हुई जिससे जनता में जबर्दस्त आक्रोश हुआ। 29.08.2003 से लेकर 2007 में विधान सभा चुनाव की घोषण तक उत्तर प्रदेश में मुलायाम सिंह सरकार के खिलाफ ऐसा माहौल बना जिसका फायदा केवल बसपा को मिला। 2005 के पंचायत चुनाव में ग्राम पंचायत एवं शहरी निकायों में जमकर हुई अनिमितता से जनता की नाराजगी आैर भाजपा व कांग्रेस सपाकी सहयोगी सपा बन गयी थी। इसकी भी लाभ बसपा को मिला।
2007 विधानसभा चुनाव:-
पिछले चुनाव की तुलना में 2007 का विधानसभा चुनाव केवल अपराधियों एवं भ्रष्टाचार के खिलाफ था। यह नारा चढ़ गुण्डो की छाती पर मुहर लगाओं हाथी पर। हर एक की जुबान पर था। यादव/ठाकुर गठजोड़ से अपराधियों ने ताण्डव मचाया था उससे पूरी जनता त्रस्त थी थानों में तैनात जाति विशेष के दरोगा-सिपाही एक पार्टी के कार्यकरता के रूप में कार्य करते थे। एस.पी. ने दरोगा को पीटा/सी.ओ. को बोनट पर घुमाया। निठारी काण्ड/मुलायम सिंह यादव एवं उनके परिवार खिलाफ भ्रष्टाचार को लेकर उच्चतम न्यायालय में पी.आई.एल. तथा बसपा नेता मायावती का बयान कि सरकार आयी तो अपराधियों को सबक सिखायेगें। यह जोशिला भाषण ने उत्तर प्रदेश में एक ऐसा माहौल बना आैर ब्रह्मण/दलित गठजोड़ व साथ ही 3 से 4 प्रतिशत न्युट्रन मतदाताओं ने बसपा के समर्थन में मतदान किया। जिसका परिणाम यह रहा कि उत्तर प्रदेश में 1991 के बाद रिकार्ड टूटा आैर बसपा नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। बसपा का मत प्रतिशत 2002 में 23.18 प्रतिशत वह बढ़ करके 30.46 प्रतिशत हो गया जोकि 7.26 प्रतिशत अधिक था। बसपा को 206 सीटें मिली जबकि सपा सरकार में रहने के बाद भी सीटें बहुत कम हो गयी। 2003 में सपा सरकार बनने के बाद लगातार सभी दलो में विधायकों के तोड़-फोड़ करके 2007 में जब चुनाव हुआ उस समय सपा सदस्यों की संख्या 236 हो गयी थी। आैर पूर्ण बहुमत था। इसलिए कांग्रेस व अन्य किसी दल को कोई दबाव नही रह गया था। आैर सपा सरकार मनमाने तरीक से अपना कार्य करती रही। 2004 को टी.वी. राजेश्वर को राज्यपाल की कुर्सी सौपी गयी। मुलायम सिंह यादव के खिलाफ छिड़े मुहिम में राजभवन की भी सक्रिय रही। हर हफ्ते राजभवन से सरकार के कार्यो की रिपोर्ट केन्द्र को जानी थी आैर इस रिपोर्ट का मीडिया से भी काफी प्रचार-प्रसार किया गया आैर पहली बार सात चरणों में चुनाव हुए जिसमें प्रथम चरण का मतदान 7 अप्रैल तो सातवें व अंतिम चरण का मतदान 8 मई 2007 को हुआ। इस प्रकार पूरे एक माह तक सात चरणों में केन्द्रीय सुरक्षा बलों के बीच मतदान सम्पन्न हुए जिसका लाभ बसपा को मिला। मतदान केन्द्र दलित बस्तियों में बनायें गये। इसका भी लाभ मिला। इस प्रकार 2007 का चुनाव की राजनीतिक व अन्य परिस्थितियां बसपा के पक्ष में रही जिसका फायदा मिला आैर बहुमत की सरकार बनी। लेकिन इन परिस्थितियों व राजनीतिक समीकरण के साथ भी सपा का मत प्रतिशत घटा नही बल्कि 0.13 प्रतिशत बढ़ा। हालांकि सीटे घटकर 97 रह गयी। भाजपा का ग्राफ गिरता गया आैर उसका मत प्रतिशत 20.03 से घट कर16.93 रह गया आैर 4 प्रतिशत मतों की कमी हुई। इन मतों में इस 2.5 प्रतिशत मतदाता ब्राह्मण थे जो सीधे बसपा से जुड़ गये थे जबकि 1.5 प्रतिशथ मतदाता अन्य वर्ग के शािमल थे जिन्होने बसपा के समर्थन मे मतदाना किया। कांग्रेस तमाम प्रयास व हथकंडे अपनाने के बाद भी 25 सीटों से घटकर 22 सीटों पर सिमटकर रह गयी आैर मत प्रतिशत भी 1/2 प्रतिशत कम हुआ। रालोद का मत प्रतिशत 2.52 से बढ़कर 3.71 हुआ, लेकिन सीटें 14 घटकर मात्र 10 रह गयी। इस प्रकार 2007 का चुनाव बसपा के पक्ष में रहा।
पिछले चुनाव की तुलना में 2007 का विधानसभा चुनाव केवल अपराधियों एवं भ्रष्टाचार के खिलाफ था। यह नारा चढ़ गुण्डो की छाती पर मुहर लगाओं हाथी पर। हर एक की जुबान पर था। यादव/ठाकुर गठजोड़ से अपराधियों ने ताण्डव मचाया था उससे पूरी जनता त्रस्त थी थानों में तैनात जाति विशेष के दरोगा-सिपाही एक पार्टी के कार्यकरता के रूप में कार्य करते थे। एस.पी. ने दरोगा को पीटा/सी.ओ. को बोनट पर घुमाया। निठारी काण्ड/मुलायम सिंह यादव एवं उनके परिवार खिलाफ भ्रष्टाचार को लेकर उच्चतम न्यायालय में पी.आई.एल. तथा बसपा नेता मायावती का बयान कि सरकार आयी तो अपराधियों को सबक सिखायेगें। यह जोशिला भाषण ने उत्तर प्रदेश में एक ऐसा माहौल बना आैर ब्रह्मण/दलित गठजोड़ व साथ ही 3 से 4 प्रतिशत न्युट्रन मतदाताओं ने बसपा के समर्थन में मतदान किया। जिसका परिणाम यह रहा कि उत्तर प्रदेश में 1991 के बाद रिकार्ड टूटा आैर बसपा नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। बसपा का मत प्रतिशत 2002 में 23.18 प्रतिशत वह बढ़ करके 30.46 प्रतिशत हो गया जोकि 7.26 प्रतिशत अधिक था। बसपा को 206 सीटें मिली जबकि सपा सरकार में रहने के बाद भी सीटें बहुत कम हो गयी। 2003 में सपा सरकार बनने के बाद लगातार सभी दलो में विधायकों के तोड़-फोड़ करके 2007 में जब चुनाव हुआ उस समय सपा सदस्यों की संख्या 236 हो गयी थी। आैर पूर्ण बहुमत था। इसलिए कांग्रेस व अन्य किसी दल को कोई दबाव नही रह गया था। आैर सपा सरकार मनमाने तरीक से अपना कार्य करती रही। 2004 को टी.वी. राजेश्वर को राज्यपाल की कुर्सी सौपी गयी। मुलायम सिंह यादव के खिलाफ छिड़े मुहिम में राजभवन की भी सक्रिय रही। हर हफ्ते राजभवन से सरकार के कार्यो की रिपोर्ट केन्द्र को जानी थी आैर इस रिपोर्ट का मीडिया से भी काफी प्रचार-प्रसार किया गया आैर पहली बार सात चरणों में चुनाव हुए जिसमें प्रथम चरण का मतदान 7 अप्रैल तो सातवें व अंतिम चरण का मतदान 8 मई 2007 को हुआ। इस प्रकार पूरे एक माह तक सात चरणों में केन्द्रीय सुरक्षा बलों के बीच मतदान सम्पन्न हुए जिसका लाभ बसपा को मिला। मतदान केन्द्र दलित बस्तियों में बनायें गये। इसका भी लाभ मिला। इस प्रकार 2007 का चुनाव की राजनीतिक व अन्य परिस्थितियां बसपा के पक्ष में रही जिसका फायदा मिला आैर बहुमत की सरकार बनी। लेकिन इन परिस्थितियों व राजनीतिक समीकरण के साथ भी सपा का मत प्रतिशत घटा नही बल्कि 0.13 प्रतिशत बढ़ा। हालांकि सीटे घटकर 97 रह गयी। भाजपा का ग्राफ गिरता गया आैर उसका मत प्रतिशत 20.03 से घट कर16.93 रह गया आैर 4 प्रतिशत मतों की कमी हुई। इन मतों में इस 2.5 प्रतिशत मतदाता ब्राह्मण थे जो सीधे बसपा से जुड़ गये थे जबकि 1.5 प्रतिशथ मतदाता अन्य वर्ग के शािमल थे जिन्होने बसपा के समर्थन मे मतदाना किया। कांग्रेस तमाम प्रयास व हथकंडे अपनाने के बाद भी 25 सीटों से घटकर 22 सीटों पर सिमटकर रह गयी आैर मत प्रतिशत भी 1/2 प्रतिशत कम हुआ। रालोद का मत प्रतिशत 2.52 से बढ़कर 3.71 हुआ, लेकिन सीटें 14 घटकर मात्र 10 रह गयी। इस प्रकार 2007 का चुनाव बसपा के पक्ष में रहा।
विधान सभा चुनाव-2012:-
विधानसभा चुनाव 2012 में नये परिसीमन के बाद िवधान सभा क्षेत्र के जातीय/धार्मिक एवं राजनीतिक समीकरण बदल गये हैं। पिछड़े विधान सभा चुनाव में 70 से अधिक विधान सभाएं ऐसी थी जिनकी आबादी 15 लाख से भी अधिक थी आैर 107 विधान सभा ऐसी थी जिनकी आबादी 03 से 04 लाख थी। नये परिसीमन में 403 विधानसभाओं के आबादी लगभग बराबर हो गयी है। अब आैसत जनसंख्या साढ़े चार लाख हो गयी है इस नये परिसीमन से सभी विधान सभा क्षेत्रों में बदलाव आया है। जिससे सभी विधान सभा क्षेत्रो का राजनीतिक समीकरण बदल गया है। नये परिसीमन पर हो रहे है। 2012 के पहली बार विधान सभा चुनाव में मुद्दे गत विधान सभा चुनावों से अलग है। इस चुनाव मायावती सरकार का भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा है। जिस तरह लखनऊ से लेकर नोयडा तक मूर्ति/पार्क एवं स्मारक में अरबों रूपये खर्च किये गये हैं। उससे प्रदेश की जनता में बसपा के प्राति आक्रोश है। यहां तक बसपा समर्थन भी मायावती के स्मारक एवं पार्क में अरबों रूपये खर्च करने के खिलाफ है। इसके अलावा बसपा ने 2007 में सपा सरकार के गुण्डा-गर्दी एवं बढ़ते अपराध के खिलाफ मुहिम चला करके सरकार बनायी थी। बसपा सरकार मे भी वही स्थिति बन गयी है। सपा सरकार के बाहुलबली नेता समय देखते हुए पैसा देकर बसपा में शामिल हो गये आैर साइकिल झण्डा बदलकर हाथी का झण्डा लगा लिया, लेकिन उनके चाल-चरित्र में बदलाव नहीं आया। बसपा सरकार के पांच वर्ष कार्यकाल में एन.आर.एच.एम. घोटाला, दो-दो मुख्य चिकित्साधिकारियों की में हत्या, खनन घोटाला आबकारी घोटाला आैर स्मारको एवं पार्को के निर्माण में अरबों रुपये के घोटाले से जनता में बसपा के प्रति नाराजगी है। दूसरी जिस तरह से 2005 सपा सरकार में पंचायतों के चुनाव में प्रधान, ब्लाक प्रमुख एवं जिला पंचायत अध्यक्ष पदों पर धन-बल के आधार पर कब्जा किया था वही तरीका बाहुबली नेताओं ने बसपा सरकार में भी अपनाया। इसी तरह विधान परिषद चुनाव व अन्य चुनावों में भी बसपा सरकार में पिछली सरकार की तरह बाहुबलयों ने तांडव किया। जिस ब्राह्मण-दलित समीकरण की हवा बना करके बसपा को बहुमत मिला था वह समीकरण भी टूट गया। इसलिए 2012 चुनाव में नया समीकरण भ्रष्टाचार का मुद्दा बन गया है। बसपा के खिलाफ जनता की नाराजगी का लाभ सपा को मिलता जा रहा है, क्योंकि भाजपा एवं कांग्रेस के कमजोर नेतृत्व में एवं प्रादेश में बसपा सरकार के खिलाफ बयान बाजी तक समिति होकर अपनाया गया रवैया
भी सपा के आक्रमक तेवर के पक्ष में जा रहा है। सपा ने युवा चेहरा अखिलेश यादव को प्रदेश संगठन की कमान सौंपी उससे युवाओं ने सपा के प्रति रूझान बढ़ी है। इसके
अलावा बसपा सरकार के भ्रष्टाचार आरोपी मंत्री बाबू सिंह कुशवहां को भाजपा में शामिल कर लिया दूसरी तरफ अखिलेश यादव ने बाहुबली डी.पी.यादव को सपा में शामिल
करने में मना कर दिया यह भी 2012 में चुनावी मुद्दा बन गया। भाजपा एवं कांग्रेस का कमजोर नेतृत्व एवं दिशावहीन चुनावी रणनीति तथा बसपा सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता की नाराजगी का लाभ अप्रत्याशित रूप से सपा को मिल गया आैर 2007 बसपा की तरह 2012 में बसपा के विकल्प के रुप में सपा ने 224 सीट एवं 29.15 मत पाकर अखिलेश यादव के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी। बसपा 80 सीट मत 25.91 भाजपा का मत 15 प्रतिशत 47 सीट तथा कांग्रेस 11.63 मत एवं 28 सीट पर सिमट गयी। अजित सिंह पार्टी अपने गढ़ से 09 सीटों तक सीमित रही। छोटे-छोटे दल पीस पार्टी-04, कौमी एकता दल- 02, एन.सी.पी.- 01, अपना दल-
01, आई.ई.एम.सी. को एक आैर 06 निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव जीते। इस प्रकार 2012 का चुनावी मुद्दा एवं चुनाव परिणाम दोनों ही पिछले चुनावों से अलग रहे।
विधानसभा चुनाव 2012 में नये परिसीमन के बाद िवधान सभा क्षेत्र के जातीय/धार्मिक एवं राजनीतिक समीकरण बदल गये हैं। पिछड़े विधान सभा चुनाव में 70 से अधिक विधान सभाएं ऐसी थी जिनकी आबादी 15 लाख से भी अधिक थी आैर 107 विधान सभा ऐसी थी जिनकी आबादी 03 से 04 लाख थी। नये परिसीमन में 403 विधानसभाओं के आबादी लगभग बराबर हो गयी है। अब आैसत जनसंख्या साढ़े चार लाख हो गयी है इस नये परिसीमन से सभी विधान सभा क्षेत्रों में बदलाव आया है। जिससे सभी विधान सभा क्षेत्रो का राजनीतिक समीकरण बदल गया है। नये परिसीमन पर हो रहे है। 2012 के पहली बार विधान सभा चुनाव में मुद्दे गत विधान सभा चुनावों से अलग है। इस चुनाव मायावती सरकार का भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा है। जिस तरह लखनऊ से लेकर नोयडा तक मूर्ति/पार्क एवं स्मारक में अरबों रूपये खर्च किये गये हैं। उससे प्रदेश की जनता में बसपा के प्राति आक्रोश है। यहां तक बसपा समर्थन भी मायावती के स्मारक एवं पार्क में अरबों रूपये खर्च करने के खिलाफ है। इसके अलावा बसपा ने 2007 में सपा सरकार के गुण्डा-गर्दी एवं बढ़ते अपराध के खिलाफ मुहिम चला करके सरकार बनायी थी। बसपा सरकार मे भी वही स्थिति बन गयी है। सपा सरकार के बाहुलबली नेता समय देखते हुए पैसा देकर बसपा में शामिल हो गये आैर साइकिल झण्डा बदलकर हाथी का झण्डा लगा लिया, लेकिन उनके चाल-चरित्र में बदलाव नहीं आया। बसपा सरकार के पांच वर्ष कार्यकाल में एन.आर.एच.एम. घोटाला, दो-दो मुख्य चिकित्साधिकारियों की में हत्या, खनन घोटाला आबकारी घोटाला आैर स्मारको एवं पार्को के निर्माण में अरबों रुपये के घोटाले से जनता में बसपा के प्रति नाराजगी है। दूसरी जिस तरह से 2005 सपा सरकार में पंचायतों के चुनाव में प्रधान, ब्लाक प्रमुख एवं जिला पंचायत अध्यक्ष पदों पर धन-बल के आधार पर कब्जा किया था वही तरीका बाहुबली नेताओं ने बसपा सरकार में भी अपनाया। इसी तरह विधान परिषद चुनाव व अन्य चुनावों में भी बसपा सरकार में पिछली सरकार की तरह बाहुबलयों ने तांडव किया। जिस ब्राह्मण-दलित समीकरण की हवा बना करके बसपा को बहुमत मिला था वह समीकरण भी टूट गया। इसलिए 2012 चुनाव में नया समीकरण भ्रष्टाचार का मुद्दा बन गया है। बसपा के खिलाफ जनता की नाराजगी का लाभ सपा को मिलता जा रहा है, क्योंकि भाजपा एवं कांग्रेस के कमजोर नेतृत्व में एवं प्रादेश में बसपा सरकार के खिलाफ बयान बाजी तक समिति होकर अपनाया गया रवैया
भी सपा के आक्रमक तेवर के पक्ष में जा रहा है। सपा ने युवा चेहरा अखिलेश यादव को प्रदेश संगठन की कमान सौंपी उससे युवाओं ने सपा के प्रति रूझान बढ़ी है। इसके
अलावा बसपा सरकार के भ्रष्टाचार आरोपी मंत्री बाबू सिंह कुशवहां को भाजपा में शामिल कर लिया दूसरी तरफ अखिलेश यादव ने बाहुबली डी.पी.यादव को सपा में शामिल
करने में मना कर दिया यह भी 2012 में चुनावी मुद्दा बन गया। भाजपा एवं कांग्रेस का कमजोर नेतृत्व एवं दिशावहीन चुनावी रणनीति तथा बसपा सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता की नाराजगी का लाभ अप्रत्याशित रूप से सपा को मिल गया आैर 2007 बसपा की तरह 2012 में बसपा के विकल्प के रुप में सपा ने 224 सीट एवं 29.15 मत पाकर अखिलेश यादव के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी। बसपा 80 सीट मत 25.91 भाजपा का मत 15 प्रतिशत 47 सीट तथा कांग्रेस 11.63 मत एवं 28 सीट पर सिमट गयी। अजित सिंह पार्टी अपने गढ़ से 09 सीटों तक सीमित रही। छोटे-छोटे दल पीस पार्टी-04, कौमी एकता दल- 02, एन.सी.पी.- 01, अपना दल-
01, आई.ई.एम.सी. को एक आैर 06 निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव जीते। इस प्रकार 2012 का चुनावी मुद्दा एवं चुनाव परिणाम दोनों ही पिछले चुनावों से अलग रहे।
विधान सभा चुनाव-2017
विधानसभा चुनावो में निरन्तर मुद्दे बदलते रहे है। एक चुनाव में एक ही मुद्दा चलता है दूसरे चुनाव में मुद्दा रिपीट नहीं होता। 2017 में अभी तक जो राजनीति समीकरण आैर विभिन्न दलों की चुनावी तैयारी चल रही उसको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि चुनावी मुद्दा विकास, भ्रष्टाचार, जातिवाद एवं स्थिर सरकार देने का होगा। जिस तरह से प्रमुख राजनीतिक दल सपा, बसपा, भाजपा एवं कांग्रेस ने धार्मिक जातीय समीकरण के आधार पर नेताओं को जिम्मेदारी दी है उसे देखते हुए यह स्पष्ट है कि चुनावी मुद्दा दिखाने के लिए विकास, भ्रष्टाचार होगा लेकिन असली मुद्दा जातीय एवं धार्मिक ध्रुवीकरण का होगा। 2012 के बाद नये परिसीमन पर दूसरी बार चुनाव हो रहे है। इस चुनाव एवं प्रदेश में राजनीतिक हालात में काफी बदलाव है। देश में भाजपा पूर्ण बहुमत की सरकार नरेन्द्र मोदी ने नेतृत्व में चल रही है तो उत्तर प्रदेश में सपा सरकार का नेतृत्व युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कर रहे है। बसपा मुखिया मायावती का पिछले दिनों का चढ़ता ग्राफ बसपा के बड़े नेताओं स्वामी प्रसाद मौर्य, आर.के. चौधरी द्वारा टिकट बेचने का मायावती पर लगाया गया आरोप से बसपा ग्राफ गिरा है। तीनो दल अति- पछड़े मतदाताओं को जोड़ने के लिए प्रयासरत है। सपा एवं बसपा अल्पसंख्यक मतों को जोड़ने में जुटी है वसपा ने 116 से अधिक अल्पसंख्यक टिकट दिये है। तो सपा भी सरकारी लाभ एवं पद देकर अल्पसंख्यको को जोड़ने में जुटी है। भाजपा की रणनीति बना रही है कि अति पिछड़ी के साथ-साथ सवर्ण मतों को भी जोड़ा जाए। इन तीनो दलों के विपरीत गत 27 वर्षो से सत्ता से बाहर कांग्रेस ने पहली बार आक्रामक राजनीतिक पहल किया है। परम्परागत नेताओं के सुझावों को दल किनार करके सवर्ण मतो को कांग्रेस से जोड़ने के साथ अल्पसंख्यक मतों पर निगाह है। कांग्रेस अपने बजूद के लिए उत्तर प्रदेश में 1989 के बाद पहली बार ऐसी पहल किया है जिससे कांग्रेसी कार्यकर्त्ता उत्साहित दिख रहे है। भीड़ जुटाने के लिए फिल्म अभिनेता राजबब्बर को प्रदेश अध्यक्ष, ब्राह्मण को जोड़ने के लिए शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री प्रत्याशी/ठाकुर/ब्राह्मण एवं पिछड़े दलित व अल्पसंख्यक मतों को जोड़ने के लिए उत्तर प्रदेश के सभी बड़े नेताओं को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौपी है। इन जिम्मेदारियों के अलावा प्रिंयका गांधी को नाम भी आगे बढ़ाया जा रहा है आैर छोटे-छोटे दलों के महागठबन्धन की तैयारी हो रही है। इस प्रकार आने वाले महीनो में प्रदेश की राजनीतिक में जातीय/धार्मिक ध्रुबीकरण का मुद्दा परदे के पीछे आैर राजनीतिक दलों के रणनीति अहम का हिस्सा होगा लेकिन दिखाने के लिए साम्प्रदायिकता, विकास, भ्रष्टाचार आैर कानून व्यवस्था मुद्दा पर राजनीतिक दलों की बयान बाजी व चुनावी रैलियां होगी। मुख्यमंत्री प्रात्याशी के रूप अखिलेश यादव अन्य मुख्यमंत्री दावेदारों पर भारी है। आने वाले समय में भाजपा किस मुख्यमंत्री का चेहरा प्रोजेक्ट करती है या बिना मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित किये चुनाव लड़ती है। जिस तरह ल सपा बसपा एवं कांग्रेस में अल्पसंख्यक मतो को जोड़ने की प्रति-स्र्धा चल रही है उसे देखते हुए इन तीनों दलो के घोषण पर धार्मिक/जातीय मतदाताओ को रिझाने वाले होगें। फिलहाल 2017 का उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव सपा, भाजपा, कांग्रेस एवं बसपा के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसलिए जीत हासिलम करने के लिए अप्रत्याशित मुद्दे भी सामने आ सकते है।
Prepared by--
URID MEDIA GROUP
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4th September, 2016