मजबूरी-- सपा-कांग्रेस गठबंधन
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विजय शंकर पंकज (यूरिड मीडिया)
लखनऊ। अक्टूबर माह की शुरूआत में अखिलेश-राहुल की वार्ता से सपा-कांग्रेस गठबंधन की जो सुगबुगाहट शुरु हुई थी, अब मूर्त रूप लेने लगी है। उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में सपा-कांग्रेस का गठबंधन दोनों दलों की राजनीतिक मजबूरी है। इस गठबंधन को लेकर अखिलेश की व्याकुलता का अन्दाजा इसी से लग जाता है कि तुनक मिजाजी में बोल गये कि जब सपा-कांग्रेस गठबंधन करना चाहेंगे तो मीडिया कैसे रोक लेगा। सपा-कांग्रेस का यह गठबंधन मुलायम-सोनिया का न होकर अखिलेश-राहुल का होगा। इस गठबंधन में बिहार जैसा स्वरूप दिखने के आसार नही लग रहे है। यूपी चुनाव में सपा आैर कांग्रेस दोनों ही अन्य निष्प्रभावी दलों को साथ लेकर चलने की जुर्रत नही करेंगे जिससे कि उन्हें सीटों के वितरण में कठिनाइयों का सामना करना पड़े।
अखिलेश को नयी ताकत देगा गठबंधन--
विधानसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस गठबंधन का अखिलेश के राजनैतिक कैरियर पर व्यापक प्रभाव डालेगा। अभी तक मुलायम का गठबंधन हमेशा ही अविश्वसनीय तरीके से रूप बदलता रहा है परन्तु अखिलेश-राहुल के बीच पनपती वैचारिक समानता आैर युवा जोश का प्रभाव गठबंधन को लंबे समय के लिए विश्वसनीय स्वरूप ले सकता है। इसके माध्यम से अखिलेश राष्ट्रीय राजनीति में अपनी प्रभावी छवि कायम कर सकते है। इस गठबंधन से अखिलेश को दोहरा लाभ होगा। सपा के यदुबंशी परिवार में पिछले तीन माह से चल रहा चचा-भतीजे का द्वन्द युद्ध कमजोर पड़ेगा, वही प्रत्याशी चयन से लेकर अन्य राजनीतिक प्रभाव कम करने के चचा की रणनीति को धक्का लगेगा आैर अखिलेश का रूतबा बढ़ेगा। साफ है कि अखिलेश-राहुल के गठबंधन में सीटों के बंटवारे से लेकर प्रत्याशी चयन का ज्यादातर मुद्दा भी इन्ही दोनों युवाओं के इशारे पर ही तय किया जाएगा। राहुल का साथ लेकर अखिलेश चचा को निष्प्रभावी करने में सक्षम होगे। यही नही अगले मुख्यमंत्री के चेहरे पर भी चुनाव पूर्व ही कांग्रेस अखिलेश के ही नाम का प्रस्ताव करेगी जिससे कि चचा शिवपाल की विधायकों से चुने जाने तथा सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव को संभालने की सलाह देने की स्थिति पर विराम लग जाएगा। अखिलेश-राहुल की इस जोड़ी में अमर सिंह-शिवपाल की दखलन्दाजी खत्म की दी जाएगी। राहुल पहले से ही अमर सिंह जैसे नेताओं से राजनीतिक दूरियां बनाकर चलते है। कई दलों से नजदीकी संबंध रखने के ही कारण राहुल अपने वरिष्ठ नेता प्रमोद तिवारी से नाराज रहते है आैर उन्हें महत्वपूर्ण जिम्मेदारी नही दी।
रालोद का पेंच फंसेगा--
सपा-कांग्रेस के इस गठबंधन में रालोद का पेंच फंस सकता है। प्रदेश की राजनीति में रालोद मुखिया अजित सिंह की भूमिका सबसे अविश्वसीनय मानी जाती है। सत्ता के लिए अजित सिंह कभी भी पाला बदलकर किसी से हाथ मिला सकते है। 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाले अजित सिंह बाद में कांग्रेस सरकार में शामिल हो गये। ऐसे में यह आशंका लगायी जा रही है कि प्रदेश में किसी भी दल की पूर्ण बहुमत की सरकार न बनने पर अजित सिंह किसी भी खेमे में जा सकते है। वैसे इस समय रालोद प्रदेश आैर विशेष कर जाट बाहुल्य पश्चिम में अपने राजनीतिक अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है। यही वजह है कि पिछले एक वर्ष से अजित सिंह किसी भी दल से गठबंधन के लिए फड़फड़ा रहे है परन्तु किसी ने अभी तक घास नही डाली। पहली बार सपा के स्थापना दिवस पर लोहिया आैर चौधरी चरण सिंह समर्थकों को एकजुट करने के शिवपाल फार्मूले के तहत अजित सिंह मंच पर आये परन्तु गठबंधन से पहले ही इशारों में अपनी शर्ते भी रखने लगे। इस प्रकार सपा-कांग्रेस गठबंधन में अजित सिंह के लिए 15-20 सीटें दिया जाना भी कठिन होगा जबकि लोकदल 30 से 40 सीटों का दावा कर रहा है।
अखिलेश ही होगे मुख्यमंत्री का चेहरा--
सपा-कांग्रेस गठबंधन में अखिलेश यादव ही मुख्यमंत्री का चेहरा होगे। सपा का शिवपाल खेमा इस मुद्दे को लेकर पेंच फंसाने की जुगत में है परन्तु अखिलेश-राहुल की जोड़ी इस मुद्दे पर एक है। प्रदेश में सपा के 230 विधायक है। सपा नेतृत्व गठबंधन के बाद भी 325 सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा कर रहा है। पिछले चुनाव में हारी हुई 170 सीटों पर सपा ने कई माह पहले ही प्रत्याशी घोषित कर दिये जबकि कुछ में बदलाव भी किया गया। गठबंधन के बाद प्रत्याशी चयन का यह मामला फिर नये सिरे से शुरु होगा जिससे पार्टी में बगावत की स्थिति पैदा हो सकती है। विधायकों का टिकट काटना सपा के लिए नुकसान भी हो सकता है। कांग्रेस के भी 28 विधायक है आैर पार्टी किसी भी हालत में 120 से 125 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी में है। राहुल गांधी के खाट पंचायत से कांग्रेसियों में नयी उमंग जगी है। ऐसे हालात में दोनों ही दलों को अपनी सीटों के दावों से पीछे हटने को मजबूर होना पड़ेगा। सूत्रों का कहना है कि सपा 300, कांग्रेस 80 तथा अन्य 23 सीटों पर रालोद एवं अन्य दलों के प्रत्याशियों को समायोजित किया जा सकता है। वैसे प्रदेश में आरजेडी का कोई प्रभाव नही है परन्तु सपा रिश्ते में लालू यादव के समर्थकों को 2-4 सीटें दे सकते है।
मुस्लिम राजनीति करवट बदलेगी --
सपा के यदुबंशी परिवार में कई महिनों से मचे कोहराम से मुस्लिम वर्ग चिन्तित था। भाजपा के बढ़ते प्रभाव आैर सपाई हंगामे से मुस्लिम इस बात को लेकर चिन्तित था कि वह किधर जाए। इसी रणनीति के तहर बहुजन समाज पार्टी ने सर्वाधिक 130 सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी खड़े कर मुसलमानों को रिझाने का काम शुरु किया। मायावती यहां तक कह गयी कि सपा को वोट देकर मुसलमान भाजपा की सरकार बनायेगे। मुस्लिम विरादरी बसपा को भी लेकर निश्चिन्त नही थी कि बहुमत न मिलने पर बसपा - भाजपा के साथ भी मिलकर सरकार बना लेगी। अब जबकि सपा-कांग्रेस गठबंधन होने पर मुस्लिम विरादरी की शंका कम होगी आैर ज्यादातर वर्ग इसी गठबंधन के साथ जाएगा।
बसपा को होगा भारी खामियाजा--
सपा-कांग्रेस गठबंधन से बसपा को सबसे ज्यादा नुकसान होगा। बसपा से पहले से ही सवर्ण एवं पिछड़े मतदाता रूठे हुए है। पिछड़े एवं दलित वर्ग के कई प्रभावी नेता बसपा छोड़ भाजपा में जा चुके है। बसपा की प्रमोशन में आरक्षण की नीति ने दलित विरादरी को अन्य से अलग-थलग कर दिया है। ऐसे में बसपा ने पहली बार दलित-मुस्लिम गठजोड़ का दांव खेला है परन्तु पार्टी की अविश्वसनीयता के कारण मुस्लिम वर्ग की पहली पसन्द सपा-कांग्रेस गठबंधन ही होगा। सपा के यादवी रूझान तथा सरकारी नौकरियों में यादवों के लिए अन्य विरादरी के लोगों से किये गये भेदभाव से भी सवर्ण खुश नही है परन्तु कांग्रेस समर्थित सवर्ण गठबंधन के साथ होने पर सपा को लाभ मिलेगा। इसी प्रकार रालोद के साथ आने पर जाट वोटों की भी एकजुटता गठबंधन के लिए फायदेमंद होगी।
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लखनऊ। अक्टूबर माह की शुरूआत में अखिलेश-राहुल की वार्ता से सपा-कांग्रेस गठबंधन की जो सुगबुगाहट शुरु हुई थी, अब मूर्त रूप लेने लगी है। उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में सपा-कांग्रेस का गठबंधन दोनों दलों की राजनीतिक मजबूरी है। इस गठबंधन को लेकर अखिलेश की व्याकुलता का अन्दाजा इसी से लग जाता है कि तुनक मिजाजी में बोल गये कि जब सपा-कांग्रेस गठबंधन करना चाहेंगे तो मीडिया कैसे रोक लेगा। सपा-कांग्रेस का यह गठबंधन मुलायम-सोनिया का न होकर अखिलेश-राहुल का होगा। इस गठबंधन में बिहार जैसा स्वरूप दिखने के आसार नही लग रहे है। यूपी चुनाव में सपा आैर कांग्रेस दोनों ही अन्य निष्प्रभावी दलों को साथ लेकर चलने की जुर्रत नही करेंगे जिससे कि उन्हें सीटों के वितरण में कठिनाइयों का सामना करना पड़े।