आओ रा-रा खेले... राजनीति करें...
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विजय शंकर पंकज
लखनऊ। आप रोज ही अखबार पढ़ते हैं और घंटों न्यूज चैनल पर खबरे देखते-सुनते है परन्तु शायद आपका पता नही होगा कि प्रदेश में कितने राजनीतिक दल है। कितने दलों ने चुनाव में अपने प्रत्याशी उतारे और उन्हें जनता का कितना समर्थन मिला। जब हम उत्तर प्रदेश की राजनीति पर चर्चा करते है तो 5 से 7 दलों के अलावा अन्य किसी का नाम जहन में नही आता। कई राजनीतिक दल तो ऐसे है जिनका नाम भी लोगो को पता नही होगा।
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लखनऊ। आप रोज ही अखबार पढ़ते हैं और घंटों न्यूज चैनल पर खबरे देखते-सुनते है परन्तु शायद आपका पता नही होगा कि प्रदेश में कितने राजनीतिक दल है। कितने दलों ने चुनाव में अपने प्रत्याशी उतारे और उन्हें जनता का कितना समर्थन मिला। जब हम उत्तर प्रदेश की राजनीति पर चर्चा करते है तो 5 से 7 दलों के अलावा अन्य किसी का नाम जहन में नही आता। कई राजनीतिक दल तो ऐसे है जिनका नाम भी लोगो को पता नही होगा।
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निर्वाचन आयोग के सूचना तंत्र में ऐसे राजनीतिक दलों का अच्छा खासा ब्योरा मौजूद है। उत्तर प्रदेश से 32 राजनीतिक दल निर्वाचन आयोग के समक्ष पंजीकृत है। इसके अलावा 117 गैर पंजीकृत राजनीतिक दल भी प्रदेश की राजनीति में अपना दमखम दिखाने का दावा करते हैं। गैर पंजीकृत दलों में एक "विधायक दल" भी है जिसने कई बार प्रत्याशी उतारने का प्रयास किया परन्तु चुनाव लड़ाने के इच्छुक कुछ सामने आये और बाद में बदल गये।
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राष्टीय स्तर के दलों में कांग्रेस आजादी से पूर्व का राजनीतिक दल है परन्तु उसमें भी कई उतार-चढ़ाव के साथ तमाम बदलाव हुए। पार्टी के चुनाव चिन्ह से लेकर झंडे तक में बदलाव होते गये। कांग्रेस के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का पंजीयन 1925 में हुआ परन्तु इसमें भी टूटन के बाद 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्स) का गठन हुआ। आजादी के बाद 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई परन्तु 1977 में कांग्रेस विरोधी गठबंधन के तहत इसका जनता पार्टी में विलय कर दिया गया। जनता पार्टी में टूटन के बाद 1980 में 6 अप्रैल को भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ। इसके पूर्व भारतीय क्रान्ति दल, राष्ट्रीय लोकदल, लोकदल आदि दलों का गठन तथा टूटन होता रहा। इसमें चौधरी चरण सिंह की विरासत के रूप में उनके पुछ अजित सिंह राष्ट्रीय लोकदल बनाये हुए है परन्तु उनका राजनीतिक अस्तित्व कुछ ही जिलों में सीमित हो कर रह गया है।
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महराष्ट्र से दलितों में जागृति का संकल्प लिये उत्तर प्रदेश में जड़ें जमाने वाले एक दलित सन्यासी पुरोधा कांशीराम ने दलित-पिछड़े वर्ग को राजनीतिक हिस्सेदारी दिलाने के नाम पर वर्ष 1984 में बहुजन समाज पार्टी का गठन किया। बाद में कांशीराम की इस धरोहर पर मायावती ने कब्जा जमा लिया। जनता पार्टी के टूटने के बाद समाजवादी जनता पार्टी जनता दल ने भी अपनी राजनीतिक पहचान बनायी। रामजन्म भूमि आन्दोलन में अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश देने वाले पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने वर्ष 1991 की लहर में करारी पराजय के बाद 1992 में समाजवादी पार्टी का गठन और 1993 में बसपा से गठबंधन किया। वर्ष 1993 के विधानसभा चुनाव में भाजपा विरोधी गठबंधन के मुलायम मुखिया बने और भाजपा से छोटा दल होते हुए भी सरकार बनायी। इसके बाद के तमाम चुनावों में अब कांग्रेस, भाजपा, बसपा, सपा और रालोद ही राजनीतिक दल के रूप में अपनी पहचान बनाये हुए है। इस बीच कुछ छोटे-छोटे दल भी अपनी पहचान के लिए चुनाव लडते रहते हैं।
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इस वर्ष के प्रारम्भ में राज्य में हुए विधानसभा के चुनाव में 32 राजनीतिक दल निर्वाचन आयोग के समक्ष पंजीकृत थे जिसमें से 25 दलों ने चुनाव लड़ाने और तीन दल दूसरे राज्यों में पंजीकृत होने के बाद अपने प्रत्याशी यहां से उतारे। चुनाव लड़ाने वाले इन 18 दलों में से चार ने अपने कुछ सहयोगियों को मिलाकर गठबंधन किया। इसमें सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने अपने दो सहयोगियों अपना दल और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ( एसबीएसपी) के साथ चुनाव लड़ा। इस गठबंधन को 41.4 प्रतिशत मतों के साथ 325 सीटों पर विजय मिली। इसमें भाजपा के 384 प्रत्याशी लड़े और 312 विजयी रहे। सबसे मजबूत स्थिति अपना दल की रही जिसके 11 प्रत्याशियों मे से 9 जीते। कम सीटों पर प्रत्याशी उतारने के बाद भी अपना दल को 1 प्रतिशत मत मिला। एसबीएसपी के 8 प्रत्याशियों में से 4 जीते। बताया जाता है कि एसबीएसपी के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर के संपर्क पूर्वी यूपी के डान मुख्तार अंसारी से नजदीकी रिश्ते रहे हैं। ओम प्रकाश वर्षो से अपनी राजभर विरादरी के संगठन का काम इसी बैनर तले करते आये हैं। इसके लिए ओम प्रकार राजभर सपा से लेकर बसपा और भाजपा सहित सभी दलों से समय-समय पर समझौते किये।
आगे की स्लाइड में पढ़ें... मुख्तार से क्यों डरे ओम प्रकाश राजभर...
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इस बार भाजपा के साथ समझौते के तहत ओम प्रकाश ने मुख्तार अंसारी सहित 8 सीटें ली। ओम प्रकाश ने अपने लिए मऊ की वह सीट मांगी जहां से मुख्तार चुनाव लडते हैं। भाजपा के साथ समझौते के बाद अन्तिम समय ओम प्रकाश ने पाला बदला और मऊ से हटकर जहुराबाद (गाजीपुर)से नामांकन कर दिया। मऊ से अन्तिम समय में डमी प्रत्याशी के रूप में अपने एक रिश्तेदार को उतारा। यहां तक कि मऊ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जनसभा में भी ओम प्रकाश राजभर नही आये। इसको लेकर पूरे क्षेत्र में चर्चा रही कि ओमप्रकाश को मुख्तार ने फोन से धमकी दी थी जिसके बाद वह मऊ से हट गये। फिलहाल ओम प्रकाश पहली बार विधानसभा चुनाव जीतकर योगी सरकार में विकलांग कल्याण मंत्री बन गये है। ओम प्रकार की पार्टी को 0.7 प्रतिशत मत मिला है।
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इस चुनाव में दूसरा सबसे बड़ा गठबंधन सपा-कांग्रेस का रहा। इसमें सपा 298 तथा कांग्रेस 105 सीटों पर चुनाव लड़ीं। इसके अलावा 18 से 20 सीटों पर सपा-कांग्रेस प्रत्याशी साथ-साथ लड़े। इसमें सपा को 47 तथा कांग्रेस को 7 सीटे मिली। इनका वोट प्रतिशत सपा 21.8 तथा कांग्रेस 6.2 रहा। बसपा ही एकमात्र पार्टी रही जिसने अकेले सभी 403 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे लेकिन उसे 19 पर ही विजय मिली और वोट प्रतिशत 22.2 रहा। कभी सपा-कांग्रेस और कभी बसपा से गठबंधन के लिए हाथ-पैर मारने वाले राष्ट्रीय लोकदल के अजित सिंह को जब अन्त में निराशा मिली तो जद यू से हाथ मिलाया और 131 सीटों पर प्रत्याशी खड़ा किया।
आगे की स्लाइड में पढ़ें... चौधरी चरण सिंह के सपने को नहीं संजो पाये अजीत...
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रालोद को एकमात्र बागपत की ही सीट मिली। रालोद का वोट प्रतिशत 1.8 प्रतिशत था। वामपंथी दलों ने गठबंधन कर 167 सीटों पर प्रत्याशी खड़े किये परन्तु कही जीत तो नही मिली और वोट प्रतिशत भी मात्र 0.2 प्रतिशत पर सिमट कर रह गया। अपना दल की अनुप्रिया पटेल से अलग उनकी मां और बहन ने कई छोटे दलों के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा। इस गठबंधन में अपना दल के 150, पीस पार्टी के 150 तथा निर्बल शोषित हमारा आम दल के 100 प्रत्याशी मैदान में उतरे और इन्हें सब मिलाकर 0.9 प्रतिशत मत मिले और एक प्रत्याशी जीत पाया। महाराष्ट्र की तर्ज पर शिवसेना ने 150 और नेशनल कांग्रेस पार्टी ने भी प्रत्याशी मैदान में उतारे परन्तु इनके प्रत्याशियों को माइनस वोटिंग ही मिली। इसके अतिरिक्त तीन निर्दल प्रत्याशियों ने 2.6 प्रतिशत मत हासिल कर जीत हासिल की।
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