बुआ-भतीजे का रागालाप...
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विजय शंकर पंकज (यूरिड मीडिया)
लखनऊ। पूरा प्रदेश जब मई माह की चिलचिलाती गरमी और उमस से परेशान है तो उत्तर प्रदेश की राजनीति के "बुआ-भतीजे" (मायावती-अखिलेश) बसन्तोत्सव का रागालाप करने में जुटे है। यह प्रदेश की राजनीति का वह दौर है जब महाभारत युद्ध के समय भीष्म पितामह के धराशायी होने पर कौरव सेना को लगातार पराजय का सामना कर पड़ रहा था ऐसे में सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए द्रोणाचार्य ने "चक्रब्यूह" की रचना की। विपरीत विचारधारा के होते हुए भी द्रोणाचार्य और दुर्योधन की यह युक्ति दोनांे के ही स्वार्थो से बंधी थी। बुआ-भतीजे का यह रागालाप भी कुछ ऐसे ही स्वार्थ के ताने-बाने से बुना जा रहा है। बुआ-भतीजे का यह रागालाप वर्तमान संगीत का वह नया घालमेल स्वरूप है जिसकी मिसाल इतिहास में बहुत कम ही दिखने को मिलती है।
सत्ता पर कब्जे की जिद...
मुगलकालीन इतिहास में औरंगजेब का नाम इस बात के लिए विख्यात है कि उसने सत्ता हासिल करने के लिए अपने ही पिता को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया और भाइयों का कत्ल करा दिया। हम जब कुछ पिछले दिनों के घटनाक्रम पर गौर करे तो प्रदेश के यादवी परिवार का कलह जब चरम पर था। उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते अखिलेश यादव ने सरकार और संगठन पर अपना बर्चस्व कायम करने के लिए हर वह दांव-पेंच शुरू कर दिया जो समाज और परिवार की भावना के खिलाफ था तो उसी को आधार बनाकर एक समाचार पत्र ने अखिलेश की तुलना औरंगजेब से कर दी तो सत्ता शीर्ष तिलमिला उठा। अखिलेश मीडिया की ऐसी उपमाओं को लेकर काफी आक्रोश व्यक्त कर चुके है लेकिन बाद में वही अखिलेश जब अपने ही पिता मुलायम सिंह यादव को समाजवादी पार्टी से बेदखल कर मुखिया पद पर काबिज हो जाते है तो अपने कृत्य पर किसी तरह की सफाई देना मुनासिब नही समझते। जब अखिलेश ने सपा के अध्यक्ष पद से मुलायम को बेदखल कर अपने को स्थापित किया था, उस समय यदि अखिलेश उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री नही होते तो कल्पना कीजिए कि क्या सपा की वह भीड़ मुलायम के खिलाफ इक्कठा होती और उसमें शामिल वरिष्ठ नेतागण अखिलेश के बैनर तले ऐसा प्रस्ताव पारित करा पाते। तब अखिलेश ने कहा था कि चुनाव बाद वह पिता मुलायम सिंह यादव के लिए सपा अध्यक्ष का पद छोड़ देगे। मुलायम के विरोध के बावजूद बसपा प्रमुख मायावती से राजनीतिक पंगे बढ़ाने वाले अखिलेश क्या यह दमखम दिखा सकते हैं कि सपा का फिर से खुला अधिवेशन बुलाकर अपने अध्यक्ष पद पर मुहर लगवा सके? इसी बात को लेकर चचा शिवपाल ने कई बार अखिलेश को सपा अध्यक्ष पद छोड़ कर मुलायम सिंह यादव की गरिमा वापस किये जाने की मांग की है परन्तु उत्तर प्रदेश की सत्ता गंवाने के बाद अब राष्ट्रीय राजनीति में लकीर खींचने की कोशिश में जुटे है। प्रदेश के इस यादवी परिवार में अब एकजुटता की कोई लौ नही दिखती है। सामने से लड़ाई तो बाप-बेटे (मुलायम-अखिलेश) की है लेकिन दांव तो दोनों तरफ से चचा शिवपाल और रामगोपाल ही चल रहे है। यह बात दिगर है कि शिवपाल को कमजोर पड़ता देख मुलायम की दूसरी पत्नी साधना पिछे से उन्हें पुशअप करती रहती है।
माया की माया...
"यथा नाम:तथा गुण" बहुजन समाज पार्टी मुखिया मायावती पर यह युक्ति पूरी तरह से चरितार्थ होती है। कहा जाता है कि व्यक्ति के कृत्य पर उसके नाम का प्रभाव होता है। दलित समाज के उत्थान के नारे पर मायावती ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में जो मुकाम हासिल किया, उसे अपने नाम के ही प्रभाव में खो दिया। मायावती ने दलित समाज के भावनात्मक लगाव को धन (माया) की चासनी में ऐसा भिगोया कि उसकी मिठास ही उसके अन्त का भी कारण बनी। मायावती ने एक बार दलित समाज से कहा था कि वह मंदिर में या किसी पंडित को दान न करे बल्कि वह धन उन्हें दे। उन्होंने स्वयं को जीती जागती माया (लक्ष्मी) की संज्ञा दी थी। यह सब कुछ तो ठीक था लेकिन "अति सर्वत्र बर्जयेत"। माया-माया की जाल मेंही फंसती चली गयी और परिणाम यह रहा कि इस कार्य में उनका साथ देने वाले भी एक-एक कर इस यातना गृह से अलग होते चले गये। अब एक सतीश चन्द्र मिश्र बचे हैजिनकी स्थिति "गुड़ के चींटे" की तरह है।
बुआ-भतीजे का खटरस...
गरमी के मौसम में आम से खटरस बनाने की पुरानी परम्परा रही है। गांवों में जब गरमी के मौसम में सब्जिया आदि नही मिलती थी तो गरीब लोगों के लिए खटरस सबसे प्रिय और पौष्टिक होता था जिसे रोटी के साथ खाते थे। राजनीति की आड़ में पैसे का खेल करने वालों को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार ने "नोटबंदी" कर गरीबी की रेखा के नीचे लाकर खड़ा कर दिया। ऐसे में राजनीतिक कमाई करने वाले राजनीतिज्ञों को आजकल खटरस का ही इस्तेमाल करने की याद आयी है।
वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव परिणाम ने सपा-बसपा को राजनीतिक धरातल पर ला दिया है। बसपा की हालत इतनी पतली हो गयी है कि मायावती के मई 2018 में राज्यसभा का कार्यकाल खत्म होने पर किसी भी सदन का सदस्य होने के लाले पड़ जाएगे। ऐसे में मायावती के पास अखिलेश और राहुल की गलबहिया करने अलावा अन्य कोई विकल्प नही बचा है। राज्यसभा जाने के लिए मायावती इतनी बेचैन है कि वह 2 जून 1995 के लखनऊ के स्टेट गेस्ट हाउस कांड की मर्मान्तक पीड़ादायी घटना को भी भूला देना चाहती है। इस घटना को अंजाम देने के आरोपी बड़े भाई मुलायम सिंह यादव जब दन्तविहीन शेर हो गये है तो भतीजे अखिलेश से शिकवा-शिकायत मिटाकर रिश्तों की दुहाई तो दी ही जा सकती है। यह बात अलग है कि भतीजा खुद भी पिता सहित सभी परिवारीजनों को लतिया कर अलग हो गया है। ऐसे हालात में अपनों के ही सताये बुआ-भतीजे एक थाल में खटरस ( खट्टा-मीठा) का स्वाद ले तो शायद कुछ जायका बदला नजर आये।
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लखनऊ। पूरा प्रदेश जब मई माह की चिलचिलाती गरमी और उमस से परेशान है तो उत्तर प्रदेश की राजनीति के "बुआ-भतीजे" (मायावती-अखिलेश) बसन्तोत्सव का रागालाप करने में जुटे है। यह प्रदेश की राजनीति का वह दौर है जब महाभारत युद्ध के समय भीष्म पितामह के धराशायी होने पर कौरव सेना को लगातार पराजय का सामना कर पड़ रहा था ऐसे में सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए द्रोणाचार्य ने "चक्रब्यूह" की रचना की। विपरीत विचारधारा के होते हुए भी द्रोणाचार्य और दुर्योधन की यह युक्ति दोनांे के ही स्वार्थो से बंधी थी। बुआ-भतीजे का यह रागालाप भी कुछ ऐसे ही स्वार्थ के ताने-बाने से बुना जा रहा है। बुआ-भतीजे का यह रागालाप वर्तमान संगीत का वह नया घालमेल स्वरूप है जिसकी मिसाल इतिहास में बहुत कम ही दिखने को मिलती है।