uttar pradesh congress
विजय शंकर पंकज, लखनऊ। वैसे तो पूरे देश की राजनीति में कांग्रेस पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है परन्तु उत्तर प्रदेश में इस पार्टी की दुर्दशा देखकर दुखद शब्द भी मुश्किल से ही निकलता है। लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व के पास पार्टी में सुधार के लिए न तो कोई सोच है, न संगठन का अनुभव और नही कुछ नया कर गुजरने की तमन्ना। थके, हारे और निराश नेतृत्व ने पार्टी तथा कार्यकर्ताओं को उसके हाल पर छोड़ दिया। कांग्रेस कार्यालय के दफ्तर में बैठक चल रही थी और फिल्मों के किरदार की तरह दो ऐसे लोग बैठे थे जो अपनी ही भूमिका में फ्लाप हो चुके है। यह दृश्य देखने पर ऐसा लगा कि कांग्रेस नेतृत्व ही नही चाहता कि पार्टी की राजनीतिक स्थिति में कोई सुधार हो। उत्तर प्रदेश कांग्रेस में अब भी नेताओं का संकट नही है। पुराने अनुभवी संगठन कर्ताओं के साथ ही अब भी युवा लावी की पहली पसन्द कांग्रेस है परन्तु उन्हे एक सुत्र में बांधने का काम तो नेतृत्व को ही करना पड़ेगा परन्तु जिन हाथों में यूपी कांग्रेस की कमान दी गयी है, उसे उसकी कोई न सुध है और नही एक धागे में पिरोने की क्षमता।
बहुत दिनों बाद इधर दो दिनों प्रदेश कांग्रेस कार्यालय जाना हुआ। वहां के हालात देखकर ऐसा लगा कि किसी फिल्म की कास्टिंग हो रही है। लंबी मेज के एक सीरे पर बीच में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राजबब्बर और उनके बगल में फिल्मी दुनिया की ही फ्लाप अभिनेत्री नगमा। इस दृश्य को देखने के बाद यूपी में कांग्रेस की दिनों दशा का पूरा खाका साफ हो जाता है। नगर निकाय चुनाव में टिकट की आस में आये लोगों की रूचि पार्टी के नेताओं से मिलने और अपनी बात कहने में कम और इन दो फ्लाप फिल्मकारों को देखने में ज्यादा थी। बैठक के बाद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राजबब्बर ने फरमान सुनाया कि नगर निकायों के लिए जिलों के टिकटों का निर्णय जिला स्तर से ही होगा। इस पर एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने कहा कि इन्हे जब प्रदेश कांग्रेस के नेताओं के नाम तक याद नही है तो जिलों में नगर निकायों एवं नगर पंचायतों के टिकट कहां से बांटेगे। कांग्रेस के बड़े नेता अब पार्टी कार्यालय जाने से कतराते है अथवा उन्हे बैठकों में बुलाया ही नही जाता है।
कांग्रेस की इस दुर्दशा के लिए पार्टी नेतृत्व को ही दोषी करार दिया जाएगा। समय रहते कांग्रेस नेतृत्व ने राज्यों में पार्टी संगठन को मजबूत करने के लिए कोई ध्यान नही दिया और केन्द्र की 10 वर्ष की सरकार में सारा ध्यान सरकार में अपने चहेतों को लाभ पहुंचाने में ही लगा रहा। पार्टी के निष्ठावान कार्यकताओं की उपेक्षा कर चापलुसों को तरजीह दी गयी। इसी का परिणाम रहा कि कांग्रेस छोड़ने वाले जगदम्बिका पाल और रीता बहुगुणा जोशी को तो दोबारा पार्टी में लेकर प्रदेश अध्यक्ष तक बना दिया गया परन्तु पार्टी के अन्य निष्ठावान कार्यकर्ताओं प्रमोद तिवारी, राजेश मिश्र, अखिलेश सिंह आदि को कभी कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी नही दी गयी। हाल वही हुआ कि प्रदेश कांग्रेस की बागडोर संभालने के बाद भी मौका मिलते ही जगदम्बिका पाल एवं रीता बहुगुणा दोबारा पार्टी से दगा देते हुए भाजपा का दामन थाम लिया।
पार्टी की बहुत दुर्दशा और बढ़ती गुटबाजी को ध्यान में रखते हुए निर्मल खत्री को प्रदेश की कमान सौपी गयी। खराब स्वास्थ्य के बाद भी निर्मल खत्री ने जिलों में संगठन को खड़ा कर दरकती खाई को पाटने की कोशिश की परन्तु चुनाव से पूर्व उन्हे भी हटा दिया गया। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव से पूर्व कांग्रेस नेतृत्व ने तमाम अटकलों को विराम लगाते हुए राजबब्बर को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। इसके पीछे कांग्रेस की जनता से बढ़ती दूरियों की ही हताशा थी कि पार्टी की रैलियों में जनता नही आती थी। इसके लिए यह कयास लगाया कि फिल्मी दुनिया का किरदार अपने आकर्षण से जनता को खींच लेगा। इसके पहले इसी रणनीति के तहत फिल्मी किरदार नगमा को भी चुनाव मैदान में उतारा गया परन्तु फिल्मों की तरह राजनीति में भी वह फ्लाप साबित हुई। हालात यह हुए कि कांग्रेस विधान सभा में दो अंकों में भी नही पहुंच पायी और 7 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। अब निकाय और लोकसभा चुनाव का बिगुल बज गया है और कांग्रेस उस राजबब्बर पर अब भी आस लगाये बैठी है जो फिल्म "" इन्साफ के तराजू "" के खलनायक है और राहुल गांधी की पसन्द है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने के लगभग एक वर्ष बाद भी राजबब्बर अभी तक यूपी में अपनी कोई टीम नही बना पाये है और नही उनकी उसमें कोई रूचि है। फिल्मों की तरह राजबब्बर अच्छे डायलाग बोल सकते है परन्तु कार्यकताओं और जनता की मंशा पर खरे नही उतर सकते है। उनकी सहयोगी अब कांग्रेस कार्यकर्ताआंे के नजदीक जाने से भी कतराती है। ऐसे में कांग्रेस का भविष्य संवारने की कल्पना करने वालों के लिए बड़ी दुरूह स्थिति है।
छात्र राजनीति में मैं भी कांग्रेस का सदस्य रहा। हमने युवावस्था में पंडित कमला पति त्रिपाठी एवं हेमवतीनन्दन बहुगुणा जीवन की कार्यशैली को देखा था। चन्द्रभान गुप्त के क्रिया कलापों के तमाम किस्से सुने। छोटा से छोटा कार्यकर्ता भी इन नेताओं तक जाकर अपनी बात कहने की क्षमता रखता था। यह नेता केवल उनकी बात सुनते ही नही तत्काल कार्रवाई भी होती। दूरदराज से आये अनजान कार्यकर्ताओं के आवेदनों पर नौकरियां मिल गयी। बडे़ से बड़े कांग्रेसी नेता भ्रमण के दौरान गांवो में पुराने कार्यकर्ताओं के यहां जाकर उनका सम्मान करते। यही कारण है कि कांग्रेस की इन तमाम दुर्दशाओं के बाद अब भी गांवो में ऐसे लोग मिल जाते है जो नेह डिग्री और इन्दिरा के नाम पर कांग्रेस को ही बोट देने की बात कहते है परन्तु ऐसे कार्यकर्ताओं की सुधि लेना और उन्हे जोड़ने वाले लागो की कांग्रेस में कमी हो गयी है। कांग्रेस को बचाने और पुरानी प्रतिष्ठा लौटाने के लिए फिल्मी किरदारों की नही बल्कि निष्ठावान और समर्पित कार्यकर्ताओं को जिम्मेदारी सौंपनी होगी। कांग्रेस में यह खराबी लंबे समय तक सत्ता में रहने के कारण आयी है परन्तु जब विपक्ष में रहकर संघर्ष करने का समय है तो पुराने लोगों को भी गले लगाना होगा। सत्ता में आने के बाद निष्ठावान कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करने की प्रवृति अब भाजपा में भी बढ़ती जा रही है और जो गलतियां कांग्रेस नेतृत्व ने 50 वर्ष बाद हुई, वह भाजपा में 5 वर्ष से भी कम समय में दिखने लगी है।
पार्टी की बहुत दुर्दशा और बढ़ती गुटबाजी को ध्यान में रखते हुए निर्मल खत्री को प्रदेश की कमान सौपी गयी। खराब स्वास्थ्य के बाद भी निर्मल खत्री ने जिलों में संगठन को खड़ा कर दरकती खाई को पाटने की कोशिश की परन्तु चुनाव से पूर्व उन्हे भी हटा दिया गया। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव से पूर्व कांग्रेस नेतृत्व ने तमाम अटकलों को विराम लगाते हुए राजबब्बर को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। इसके पीछे कांग्रेस की जनता से बढ़ती दूरियों की ही हताशा थी कि पार्टी की रैलियों में जनता नही आती थी। इसके लिए यह कयास लगाया कि फिल्मी दुनिया का किरदार अपने आकर्षण से जनता को खींच लेगा। इसके पहले इसी रणनीति के तहत फिल्मी किरदार नगमा को भी चुनाव मैदान में उतारा गया परन्तु फिल्मों की तरह राजनीति में भी वह फ्लाप साबित हुई। हालात यह हुए कि कांग्रेस विधान सभा में दो अंकों में भी नही पहुंच पायी और 7 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। अब निकाय और लोकसभा चुनाव का बिगुल बज गया है और कांग्रेस उस राजबब्बर पर अब भी आस लगाये बैठी है जो फिल्म "" इन्साफ के तराजू "" के खलनायक है और राहुल गांधी की पसन्द है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने के लगभग एक वर्ष बाद भी राजबब्बर अभी तक यूपी में अपनी कोई टीम नही बना पाये है और नही उनकी उसमें कोई रूचि है। फिल्मों की तरह राजबब्बर अच्छे डायलाग बोल सकते है परन्तु कार्यकताओं और जनता की मंशा पर खरे नही उतर सकते है। उनकी सहयोगी अब कांग्रेस कार्यकर्ताआंे के नजदीक जाने से भी कतराती है। ऐसे में कांग्रेस का भविष्य संवारने की कल्पना करने वालों के लिए बड़ी दुरूह स्थिति है।
27th October, 2017