विजय शंकर पंकज, लखनऊ। कांग्रेस अध्यक्ष का पारिवारिक ताज धारण करने के बाद राहुल गांधी सबसे पहले बहरीन गये जिसके सुलतान की ऐय्याशी के दीवाने है। बहरीन के सुलतान के साथ राहुल गांधी वर्ष 2018 का जश्न मनाकर भारत की राजनीति को नया आयाम देने की मुहिम में जुटेंगे। बहरीन जाने की राहुल को इतनी बेचैनी थी कि संगठन को धार देने के लिए राज्य इकाइयों में होने वाले बदलाव पर विचार विमर्श करने के लिए भी उनके पास समय नही था। यही वजह रही कि बहरीन जाने की हड़बड़ी में कांग्रेस के सुलतान ने अपने दोस्त की तर्ज पर सभी राज्य इकाइयों को अपने पुराने सरदारों से ही कामकाज जारी रखने का फरमान जारी करा दिया।
वर्तमान में जब सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह अभी से चुनाव होने वाले राज्यों में प्रचार में जुट गये है तो कांग्रेसी सुलतान बहरीन ऐश करने गये है। भाजपा ने त्रिपुरा से लेकर कर्नाटक तथा केरल तक अपनी चुनावी मुहिम शु डिग्री कर दी है तो कांग्रेस को अभी घर को ही दुरूस्त करने की फुर्सत नही है। सभी दल अपने चुनावी वोट बैंक को बढ़ाने के लिए जातीय एवं क्षेत्रीय समीकरनों को साधने में लगे हुए है तो कांग्रेस यह तय नही कर पा रही है कि किस पर विश्वास करे। जातीय, क्षेत्रीय समीकरनों में कांग्रेस को विश्वसनीय कार्यकर्ता ही नही मिल रहे है। ऐसे में कांग्रेस को अभी विश्वसनीय कार्यकर्ताओं को ही संगठन की बागडोर सौंपने की मजबूरी है। कांग्रेस की सबसे खराब स्थिति उत्तर प्रदेश मंे है। प्रदेश कांग्रेस बनाने को लेकर नेतृत्व पिछले कई वर्षो से दुविधा का शिकार है। यही से कांग्रेस के पुरोधा सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी का लोकसभा क्षेत्र है। यहां पर कांग्रेस की कमजोरी का प्रभाव इनके लोकसभा क्षेत्रों रायबरेली एवं अमेठी पर भी पड़ेगा। पिछली बार ही अमेठी की सीट बचाने के लिए कांग्रेस नेतृत्व को अमेठी के राजा संजय सिंह को राज्यसभा भेजने को मजबूर होना पड़ा ताकि पार्टी में उनके विरोध का सामना न करना पड़े।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अध्यक्ष बने राजबब्बर को लगभग डेढ़ वर्ष से ज्यादा का समय हो गया परन्तु संगठन में वह कोई बदलाव नही कर पाये। हालात यह हुई कि पार्टी को राज्य में अपने सबसे खराब दिन से गुजरना पड़ा। यहां पर लोकसभा चुनाव में केवल मां-बेटे की दो सीटों ही बची। राजबब्बर से पहले पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष निर्मल खत्री तथा प्रभारी मधुसूदन मिस्त्री की जोड़ी ने संगठन को मजबूत करने की पहल की थी। यहां तक कि जिला एवं ब्लाक इकाइयों के चुनावी प्रक्रिया ने सुस्त पड़े कांग्रेसियों में नयी जान डाल दी थी परन्तु राहुल के दोस्त और राजनीति का गणित पढ़ाने वाले प्रशान्त किशोर उर्फ पीके की रणनीति ने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के उत्साह को ठंढा कर दिया। हालात यह है कि कांग्रेस में लोकतांत्रिक प्रक्रिया खत्म हो गयी है और चाटुकारों को ही पदाधिकारी बनाया जा रहा है। कांग्रेस के सभी फ्रन्टल संगठनों का कोई नामलेवा नही है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ज्यादातर समय दिल्ली में बिताते है और लखनऊ आने पर भी आम कार्यकर्ताओं से नही मिल पाते है। यही हाल प्रदेश कांग्रे प्रभारी गुलाम नबी आजाद की है। प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय में कुछ पदाधिकारियों की दादागिरी चलती है। ऐसे में राजबब्बर को दोबारा प्रदेश कांग्रेस की कमान दिये जाने का निर्णय कार्यकर्ताओं को समझ नही आ रही है। प्रदेश में जब कि प्रतिद्वन्दी दल जातीय समीकरण बनाने में जुटी है तो राजबब्बर के नाम से कांग्रेस का कोई जातीय समीकरण भी नही बन रहा है। गुजरात चुनाव में कांग्रेस ने जिस प्रकार जातीय समीकरण बनाने की कोशिश की, उस संदर्भ में कांग्रेस यूपी में कोई पहल नही कर पा रही है। उत्तर प्रदेश के राजनीतिक समीकरण में भाजपा सरकार के निर्णयों को लेकर ब्राह्मण वर्ग नाराज चल रहा है तो दलितों को भी बसपा में भविष्य नही दिख रहा है। ऐसे में कांग्रेस के लिए यह अच्छा अवसर था कि वह यूपी में ब्राह्मण-दलित समीकरण को बनाने की पहल करे। ऐसा बनता है तो मुस्लिम वर्ग अपनेआप ही कांग्रेस से जुड़ जाएगा। इस समीकरण में कांग्रेसी वोट अच्छी पहल साबित होगी परन्तु साफ है कि कांग्रेस नेतृत्व के पास इसका कोई खाका नही है।
8th January, 2018