विजय शंकर पंकज, लखनऊ। उत्तर प्रदेश की राजनीति में विपक्षी एकता ऐसे संत्रास का शिकार रही जो कभी भी पनप नही सकी। विपक्षी नेताओं की महत्वाकांछाए और जातीय समीकरणों की राजनीति ने इनको हमेशा ही दोराहे पर खड़ा रखा। वर्तमान में भी जब विपक्ष अपने निचले पायदान पर खिसक कर सिसकियां ले रहा है, तब भी एकता को लेकर सशंकित है। विपक्ष की स्थिति दोराहे पर खड़े उस राही की तरह हो गयी है जिसके आगे कुंआ तथा पीछे खाई है। मोदी की लोकप्रियता के ग्राफ में विपक्षी दलों का जातीय समीकरण भाजपा के कुंए में ही समाहित होता जा रहा है तो एकता की खाई को लेकर ऐसा संशय बरकरार है कि वह अमली जामा ही नही पहन पा रहा है। प्रदेश की राजनीति में मुस्लिम वोट बैंक का समीकरण विपक्षी एकता में सबसे बड़ा रोड़ा बन रहा है।
उत्तर प्रदेश में विपक्षी एकता का इतिहास ऐसा रहा कि सत्ता हासिल करने के बाद भी कभी आधा कार्यकाल भी साथ नही रह पाये। भारतीय राजनीति के ""नेहरु - इन्दिरा"" काल में भयभीत विपक्ष एकता की बात ही नही सोच पाता था। विपक्षी एकता की बात तब ही प्रदेश की राजनीति में चर्चा में आयी जब कांग्रेस के अन्दरूनी बगावत के चलते कुछ लोग हटकर सरकार बनाने के प्रयास में एकजुट हुए। प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस को तोड़ने की पहल चौधरी चरण सिंह ने की तो हेमवती नन्दन बहुगुणा ने उसे चरम पर पहुंचाया। कांग्रेस के अन्दर बगावत और आपातकाल में राजनीतिज्ञों की दुर्दशा ने पहली बार सफलता पूर्वक कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाया। कांग्रेस के खिलाफ जनाक्रोश ने जनता पार्टी के रूप में विपक्षी एकता को सत्ता सौंपी परन्तु दो वर्ष के अन्दर ही जनसंघ की दोहरी सदस्यता को लेकर समाजवादियों ने गठबंधन को तोड़ दिया। इस विपक्षी एकता में भी कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवतीनन्दन बहुगुणा के बगावती तेवर ने बड़ी भूमिका निभायी। इसके एक दशक बाद कांग्रेस के ही बागी विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने ही प्रधानमंत्री राजीव गांधी के खिलाफ बोफोर्स कांड की साजिश कर विपक्षी एकता की आधारशिला रखी और उसके बल पर प्रधानमंत्री बन गये। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बड़ी ही चालाकी से पिछड़ा, दलित तथा मुस्लिम गठबंधन की पहल की और उत्तरी भारत में जातीय राजनीति की मजबूत आधारशिला रखी। इसके बाद भी मंडल- कमन्डल की भेंट चढ़ा यह गठबंधन भी दो वर्ष भी नही चल पाया। इसी गठबंधन से प्रदेश के मुख्यमंत्री बने मुलायम सिंह यादव राज्य की राजनीति में एक बड़ी शख्सियत बन कर उभरे। जोड़ तोड़ की राजनीति के माहिर मुलायम सिंह यादव ने मुस्लिम वोट बैंक की जो शुरूआत की, वह अयोध्या के राममन्दिर आन्दोलन की आंधी में उखड़ गया। राममन्दिर आन्दोलन ने भारतीय जनता पार्टी को कई ज्यों में सत्ता दिला दी।
सत्ता से बेदखल होने के बाद भी मुलायम सिंह यादव पिछड़ा-मुस्लिम राजनीति पर काम करते रहे परन्तु सफलता मिलते न देख उन्होने दलित वोट बैंक को साथ लेने के लिए बहुजन समाज पार्टी से गठजोड़ कर लिया। अयोध्या का विवादास्पद ढ़ाचा गिरने के बाद उपजे नये राजनीति समीकरण ने इस गठजोड़ को सत्ता के करीब ला दिया। भाजपा के उभार से भयभीत कांग्रेस सहित अन्य दलों ने भी सपा-बसपा गठबंधन को समर्थन देकर सरकार बनवा दी। बसपा को एक बार जब सत्ता का स्वाद मिला तो फिर लिप्सा बढ़ती गयी और लगभग डेढ़ वर्ष बाद ही 2 जून 1995 के गेस्ट हाउस कांड की घटना ने सपा-बसपा गठबंधन को तार-तार कर दिया। जून 1995 की यह कड़वाहट अब तक दोनो दलों के नेताओं में अभी तक बरकरार है। यह गठबंधन तोड़ने के लिए भाजपा ने बसपा को समर्थन देकर उसकी सरकार बनवा दी परन्तु बसपा की कार्यशैली से यह सरकार भी 6 माह नही चल पायी।
सत्ता का स्वाद चख चुकी बसपा ने भाजपा के साथ तीन बार सरकार बनायी परन्तु कोई भी ज्यादा समय तक नही चली। भाजपा की स्थिति राजनीति में अछूत की तरफ होती जा रही थी जिससे बचने के लिए वह बसपा को लगातार अपने साथ मिलाने की कोशिश कर रही थी। प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस की स्थिति लगातार गिरावट की होने से उसने भी बसपा से चुनाव पूर्व गठबंधन किया परन्तु कोई बदलाव नही कर पायी। अन्त में बसपा का "" सर्व समाज "" का चुनावी नारा सफल रहा और उसे 2007 मे पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का मौका मिला। वर्ष 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में ""मोदी फोबिया"" ने विपक्ष को ऐसे खाई में ले जाकर पटका की अभी तक वह अपनी कमर भी सीधी नही कर पा रहे है। भाजपा को भी ऐसी सफलता की आशा नही थी।
वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भारी पराजय झेलने के बाद हताश विपक्ष ने एकता की पहल की। उसके पहले विधानसभा चुनाव में ही सपा-कांग्रेस ने गठबंधन कर चुनाव लड़ा परन्तु दोनों ही अपने न्यूनतम स्कोर पर आ गये। चुनाव हारने के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती भी 1995 की दुर्घटना को भूलकर गठबंधन का संकेत दिया। 6 माह की चर्चाओं के बाद विपक्षी एकता अपनी-अपनी राह चल दी। हालात यह हो गये है कि सपा-कांग्रेस गठबंधन भी अब टूटने के कगार पर आ गया है। यह स्थिति तब है जब दोनों दलों के युवराज अब अपनी पार्टियों के राजा बन बैठे है। विपक्षी एकता में सपा, बसपा, कांग्रेस का गठबंधन न होने के पीछे कारण मुस्लिम वोट बैंक बताया जा रहा है। पहले भी इन दलों में मुस्लिम वोट को लेकर रस्साकसी होती रही है। सपा यादव-मुस्लिम गठजोड़ पर चलती है तो बसपा ने दलित-मुस्लिम गठजोड़ को हवा दी है। हालांकि विधानसभा चुनाव में बसपा का अतिरेक मुस्लिम वोट बैंक का फार्मूला विफल साबित हुआ। बताते है कि निकाय चुनाव में बसपा का मुस्लिम समीकरण कारगर रहा। जहां सपा को महानगरों में कोई सफलता नही मिली, वही बसपा ने दो जगहों पर जीत दर्ज की। इस जीत के बाद ही बसपा सुप्रीमों ने विपक्षी एकता से अपना पाला खींच, अकेले ही चुनाव लड़ने की बात कही। यूपी की राजनीति में हताश मुस्लिम वर्ग बसपा को अपने ज्यादा नजदीक मान रहा है। मुस्लिम राजनीतिज्ञों का मानना है कि बसपा से गठबंधन होने पर बड़ा एक वोट बैंक बनेगा। बसपा-मुस्लिम वोट बैंक 21 प्रतिशत दलित तथा 16 प्रतिशत मुस्लिम वोट बैंक है जो मिलकर 37 प्रतिशत है। इसमें सरकार बनाने के लिए 28 से 30 प्रतिशत वोट ही काफी है। इसके विपरीत सपा का 9 प्रतिशत यादव तथा 16 प्रतिशत मुस्लिम मिलकर 25 प्रतिशत ही बन पायेगा। कांग्रेस के पास तो कोई ठोस जातीय समीकरण ही नही है। भाजपा ने सपा-बसपा के पिछड़ा - दलित वोट बैंक में अच्छी सेंधमारी की है। लोकसभा एवं विधानसभा के चुनाव परिणाम सपा-बसपा की इस कमजोरी का एहसास कराते है। यही मुस्लिम वोट बैंक अब विपक्षी एकता की राह का सबसे बड़ा रोड़ा बना हुआ है। हर दल अपने पाले में मुस्लिम वर्ग को लाने के प्रयास में लगा हुआ है।
11th January, 2018