विजय शंकर पंकज, (यूरिड मीडिया)। सत्ता के शिखर पर पहुंचती भारतीय जनता पार्टी की सबसे सफल जोड़ी मोदी-अमित शाह की रणनीति पिछले चार वर्षो में पहली बार विफल साबित हुई है। भाजपा नेतृत्व इस विफलता को ढ़पने के लिए जो भी तर्क दे परन्तु इसकी कसक मोदी के लिए शूल साबित हुई है। यही वजह रही कि हर जीत पर अमित शाह को शाबाशी देने वाले मोदी ने इस बार कुछ नही कहा। कर्नाटक हार के बाद मोदी ने अमित शाह को अपनी रणनीति पर दोबारा से काम करने की हिदायत दी है। इसके लिए जीत की संभावना वाले राज्यों में अच्छे अवसर की तलाश से लेकर, नये सहयोगियों की खोज शुरू हो गयी है। यही नही भाजपा ने अपने प्रचंड बहुमत वाले इलाको में कम से कम छति होने की रणनीति भी बनानी शुरू कर दी है।
कर्नाटक की विफलता ने मोदी-अमित शाह के लिए पार्टी में ही अलग-थलग कर दिया है। अभी तक सफलता का पूरा श्रेय अपने उपर लेने और पार्टी के अन्य नेताओं को किनारे करने का परिणाम यह रहा है कि भाजपा का आम कार्यकर्ता भी कर्नाटक की हार को पार्टी की नही बल्कि मोदी-अमित शाह के अहम को मान रहा है। भाजपा कार्यकर्ताओं की नाराजगी का ही आलम रहा तो पार्टी के लिए 2019 का मिशन 2019 भी पूरी तरफ विफल रहेगा। लोकसभा चुनाव से पूर्व भाजपा को अपनी सरकार वाले तीन राज्यों में उपचुनाव का भी सामना करना है। इन तीनों राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मोदी-अमित से ज्यादा क्षेत्रीय क्षत्रपों का बर्चस्व है। यहां पर भाजपा ने चुनाव के दरम्यान क्षेत्रीय क्षत्रपों को डिस्टर्ब करने का प्रयास किया तो पार्टी को भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। भाजपा सूत्रों का कहना है कि अपने आधिपत्य को बढ़ाने के लिए अमित शाह ने इन तीनों राज्यों में अपनी अलग टीम बनाती शु डिग्री कर दी है। अमित शाह की इस रणनीति से इन राज्यों में पार्टी के अन्दर ही घटकों के बर्चस्व की लड़ाई शुरू हो जाएगी। राजस्थान में मुख्यमंत्री बसुन्धरा राजे के समक्ष केन्द्रीय सूचना राज्यमंत्री राजबर्धन राठौर को तैयार किया जा रहा है। इसके पहले मोदी ने भी राजस्थान में ओम माथुर को स्थापित करने का प्रयास किया परन्तु बसुन्धरा की तेजी ने माथुर के राजस्थान प्रवास पर ही प्रतिबंध लगा दिया। इसी प्रकार मध्यप्रदेश में उमा भारती से लेकर यादव नेता और छत्तीसगढ़ में अति पिछड़े नेता को आगे करने की रणनीति बनायी जा रही है। मध्य प्रदेश में शिवराज चौहान तथा छत्तीसगढ़ में रमन सिंह तीन बार से मुख्यमंत्री है और दोनों ही अपने राज्यों में भाजपा के अन्य किसी भी नेता से काफी लोकप्रिय है। बताया जाता है कि इन राज्यों में मोदी के नाम से ज्यादा इन मुख्यमंत्रियों के नाम से वोट मिलते है। शिवराज चौहान मध्यप्रदेश के युवा वर्ग में ""मामा"" और रमन सिंह आदिवासियों के बीच ""चाऊर वाले बाबा"" के नाम से जाने जाते है। इसी प्रकार राजस्थान में बसुन्धरा राजे की इमानदारी औ र कार्यशैली जनता में चर्चित है परन्तु उनके रहन-सहन की राजशाही ठाठ कुछ भाजपा नेताओं को पसन्द नही आती है। बसुन्धरा की लोकप्रियता तथा ईमानदार छवि के ही कारण भाजपा सत्ता में वापस आयी थी परन्तु उनकी एकला चलो की राजनीति से नाराज केन्द्र की मोदी सरकार में उनके बेटे दुष्यन्त को जगह नही दी गयी और अति पिछड़े विरोधी नेताओं के आगे बढ़ाने का प्रयास किया गया। अब कर्नाटक में मिली विफलता के बाद भाजपा को इन गढ़ो को बचाने की चिन्ता सता रही है। यहां के भाजपा नेताओं में चल रही खींचतान तथा क्षेत्रीय क्षत्रपों और अमित शाह में अनबन की खबरों से प्रत्याशियों के चयन में गड़बड़ी हुई तो पार्टी को इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। वैसे भी यह तय है कि इन राज्यों में पार्टी को बहुत से वर्तमान विधायकों तथा मंत्रियों का टिकट काटने को मजबूर होना पड़ेगा। विवादास्पद और क्षेत्र में खराब छवि के विधायकों के स्थान पर अच्छे पार्टी कार्यकर्ताओ को टिकट दिया जाना ही श्रेयस्कर होगा।
पिछले 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को राजस्थान की 25 मंे से सभी 25, मध्यप्रदेश की 29 में से 27 तथा छत्तीसगढ़ की 11 में से 10 सीटों पर विजय मिली थी। यहां के राज्यों में भी बहुमत की सरकारें चल रही है। अमित शाह लावी का कहना है कि इन राज्यों में मुख्यमंत्रियों के काफी दिनों से रहने के कारण सत्ता विरोधी हवा फैल रही है तथा कार्यकर्ताओं में भी असंतोष है। इसके विपरीत सच्चाई यह भी है कि इन राज्यो में कोई अन्य नेता भी इनके समक्ष नही है।
इन तीन राज्यो के अलावा भाजपा ने अपने सबसे ज्यादा प्रभाव वाले राज्यों में होने वाले नुकसान को बचाने की रणनीति बनानी शुरू कर दी है। उत्तर प्रदेश की 80 में से 73 सीटों पर भाजपा तथा उसके सहयोगी अपना दल की जीत हुई थी। उपचुनाव में दो सीटे हारने के बाद यह 71 रह गयी है। उपचुनाव वाली तीसरी सीट कैराना को बचाने की भी भाजपा को कड़ी चुनौती है। इसी प्रकार गुजरात की 26 में से 26, हिमांचल की 4 में से 4, हरियाणा की 10 में से 7, झारखंड की 14 में से 12, उत्तराखंड की 5 में से 5, गोवा की 2 में से 2 तथा दिल्ली की 7 में से 7 सीटों पर कब्जा है। यूपी में सपा-बसपा के साथ ही कांग्रेस एवं रालोद के गठबंधन के कारण पार्टी को आधी सीटें बचाना भी कड़ी चुनौती है। हरियाणा की भाजपा सरकार लगातार विवादों में है तो झारखंड भी खनन माफियाओ के जाल में फंसा हुआ है। गुजरात, हिमांचल, उत्तराखंड और दिल्ली सहित मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में भाजपा को मूलत: कांग्रेस से सीधी टक्कर लेनी है। इसके बाद इन राज्यों में कांग्रेस को बसपा का समर्थन मिलता है तो भाजपा को भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। भाजपा को बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा तथा कर्नाटक में कुछ बढ़ोतरी की संभावना है परन्तु क्षेत्रीय दलों तथा गठबंधन से भाजपा को लक्ष्य हासिल करना आसान नही होगा। उत्तर-पश्चिम के राज्यों के जीतनी सीटें गंवानी पड़ेगी, पूर्वोत्तर के राज्यों से उसकी भरपाई करना संभव नही होगा। पूर्वोत्तर के 7 राज्यो से लोकसभा की 25 सीटें ही है। भाजपा को दक्षिण के अन्य राज्यों तमिलनाडू, केरल, आन्ध्रप्रदेश तथा तेलंगाना से कुछ खासी उम्मीद नही है। चार साल सत्ता में रहने के बाद भाजपा ने महाराष्ट्र में अपने पुराने सहयोगी शिवसेना तथा तेलंगाना में तेदेपा जैसा सहयोगी खो दिया है। ऐसे में भाजपा नेतृत्व तमिलनाडू में एआईडीएमके तथा उड़ीसा में बीजू जनता दल से नया गठबंधन की तैयारी कर रहा है। इसके साथ ही आन्ध्रप्रदेश में तेलगूदेशम से भी चुनाव पूर्व सहयोग की बाते की जा रही है। बिहार में मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के जेडीयू तथा पंजाब में अकाली दल से गठबंधन बना ही हुआ है। भाजपा नेतृत्व को इन नये गठबंधन के लिए अपने रूख को नरम करना पड़ेगा। इसके साथ ही जल्द ही कार्यकताओं की नाराजगी भी दूर करने की पहल करनी होगी।
21st May, 2018