लखनऊ, (यूरिड मीडिया)। बंगलौर में 23 मई को विपक्षी नेताओं के जमावड़े पर समीक्षकों की नजर अलग-अलग रही। घटनाक्रम एक था परन्तु लोगों का नजरिया और उसके परिणाम की संकल्पना की विचित्रता उल्लेखनीय थी। परस्पर विरोधी विचार वाले भी अपनी एकता की दोहाई दे रहे थे। यह वैसे ही था जैसे बाढ़ में सांप और नेवला एक ही पेड़ पर पनाह लेते है। मोदी विरोधी इस एकता में सर्वाधिक मुस्लिम वर्ग खुश नजर आया कि पहली बार उसके हिमायतियों ने जो राह अपनायी है, उससे भारत में इस्लाम सुरक्षित हो जाएगा। हालांकि इस विपक्षी एकता में एक भी मुस्लिम चेहरा नजर नही आया। यहां तक कि अखिलेश, मायावती, ममता, लालू और वामपंथियों के भी मुस्लिम नेता कार्यक्रम से नदारद रहे। इस एकता के बाद भी मंच पर मिलने वाले हाथों में गर्मजोशी नही थी। कुछ अनमने से मिले तो कुछ ने सामना होने पर नजर बचाने की फितरत ढूढी।
कांग्रेस सहित कई राजनीतिक पार्टिया मुस्लिम वर्ग में यह दहशत पैदा करने का प्रयास करते है कि भाजपा मुस्लिम विरोधी है। हालांकि भारत में जितने भी बड़े दंगे हुए है, उसमे सर्वाधिक कांग्रेस शासन काल में हुए। इसके साथ ही मुस्लिम परस्ती का टैग लगाये राजनीतिक दलों सपा, त्रिणमूल कांग्रेस, आरजेडी के शासनकाल में भी दंगों का इतिहास रहा है। इन पार्टियों के शासनकाल में मुस्लिम वर्ग की स्थिति अभी तक दयनीय ही बनी रही और उनके विकास के लिए कोई कार्य योजना नही चलायी गयी परन्तु मुसलमान उन्ही को अपना संरक्षक मानता है। कर्नाटक में शपथग्रहण का दृश्य देख एक मुस्लिम नेता इतना गदगद थे कि बोल उठे अब भाजपा जमानत भी नही बचा पायेगी। टी.वी चैनल की बहस में एक दल के प्रवक्ता ने यहां तक कह दिया कि उत्तर भारत के राज्यों में भाजपा को एक भी सीट नही मिलेगी। वर्ष 1993 में जब सपा-बसपा गठबंधन ने चुनाव लड़ा तब भी भाजपा इनसे ज्यादा सीटें हासिल की थी।
सवाल यह है कि कर्नाटक के मंच पर इक्कठा होने वाले राजनीतिक मैदान में एकता कैसे बनायेगे। पश्चिम बंगाल में ममता और वामपंथी एकता किस विचारधारा पर होगी। इन दोनों ही दलों का राजनीतिक बर्चस्व एक दूसरे के विरोध पर ही टिका है। दोनों का वोट बैंक भी एक ही है। यूपी में सपा-बसपा गठबंधन होने के बाद भी उन दोनों ही दलों की महत्वाकांछा एक दूसरे का साथ निभाने में आड़े आएगी। यह राजनीतिक बाध्यता है कि पिछले दिनों राहुल गांधी के दलित बस्तियों में भोजन करने की घटना से घबड़ाकर बसपा नेता मायावती ने आरोप लगाया था कि दलित के घर से निकलने पर राहुल डिटाल साबुन से नहाते है। अब विडम्बना है कि राहुल की मां सोनिया गांधी बंगलौर के मंच पर मायावती का हाथ उठाकर विजय जश्न मनाती है और गले लगाती है। राजनीतिक दलों का यह परस्पर विरोधाभास कितने दिनों तक चलेगा।
मंच से एकता दिखाने वाले राजनीतिक दलों की असली परीक्षा तो चुनावी गठबंधन में सीटो के बंटवारे पर होगा। इसके बाद कुर्सी को लेकर लड़ाई होगी। प्रधानमंत्री के पद पर राहुल की एकतरफा घोषणा की सबसे ज्यादा विरोध करने वालों में शरद पवार, ममता बनर्जी, चन्द्रबाबू नायडू ही होगे। इनके साथ ही समय से कुर्सी छिनने की दौड़ में अखिलेश आैर मायावती भी पीछे नही हटेंगे। संगठनात्मक कमजोरी और राज्यों में चल रही गुटबाजी के कारण कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बाद भी सभी विपक्षी दलों को एकजुट कर पायेगी। 17 दलों के महत्वाकांछी नेताओं के गठबंधन को राहुल जैसे अपरिपक्व नेता को संभालना आसान नही होगा। भारत की राजनीति में यह करिश्मा करने वाले एकमात्र अटल बिहारी वाजपेयी ही ऐसे रहे जिन्होने 24 दलों के गठबंधन की एकता 5 वर्ष तक बनाये रखी। यही नही अटल ने अपने समय की तेज तर्रार महिला नेताओं, जयललिता, ममता और मायावती को भी अपने पाले में एकजुट रखा। अटल जैसी शख्सियत फिलहाल कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी दलों के नेताओं में नही दिखती है। ऐसे में विपक्षी एकता की इस पहल पर अभी नेताओं को लंबी लड़ाई लड़नी होगी।
24th May, 2018