सुप्रीम कोर्ट (SC) ने गुरुवार को जेलों में लंबे समय से जारी जाति आधारित भेदभाव की प्रथा को समाप्त कर दिया है। कोर्ट ने जेल मैनुअल में मौजूद जाति आधारित भेदभाव को असंवैधानिक करार देते हुए तुरंत सुधार करने के निर्देश दिए हैं। मुख्य न्यायाधीश (CJI) धनंजय वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में सुनाया गया यह फैसला विशेष रूप से अनुसूचित जातियों (SC), अनुसूचित जनजातियों (ST) और विमुक्त जनजातियों के खिलाफ जेलों में व्याप्त भेदभाव पर केंद्रित था। न्यायालय ने केंद्र और सभी राज्यों को निर्देश दिए हैं कि कोई भी कैदी जाति के आधार पर काम या रहने की व्यवस्था में भेदभाव का सामना न करे। SC ने जेल मैनुअल के उस नियम का भी जिक्र किया जिसमें निम्न जातियों से सफाई का काम कराया जाता है और उच्च जातियों को रसोई में काम दिया जाता है। सीजेआई की पीठ ने राज्यों को चेतावनी दी कि अगर जेलों में किसी भी प्रकार का जाति आधारित भेदभाव पाया गया तो इसके लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया जाएगा।
कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार किया जाना चाहिए- CJI
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, “जाति आधारित भेदभाव, चाहे प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष, गुलामी काल के शासन की एक विरासत है। संविधान के अनुसार कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार किया जाना चाहिए और उनके मानसिक और शारीरिक कल्याण का ध्यान रखा जाना चाहिए।” इस मामले में न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा भी शामिल थे। बेंच ने उन सभी राज्यों को निर्देश दिया जहां ऐसा भेदभाव जारी है। पीठ ने कहा कि वे अपने जेल नियमों में तुरंत बदलाव करें और तीन महीने के भीतर अनुपालन रिपोर्ट दाखिल करें। इसके साथ ही केंद्र सरकार को भी 2016 के मॉडल जेल नियमों में संशोधन करने के आदेश दिए गए हैं, जो राज्यों को अपराधियों को "आदतन अपराधी" के रूप में वर्गीकृत करने की अनुमति देते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस प्रकार के भेदभाव संविधान में निहित समानता के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और जेल अधिकारियों से कहा कि वे अपनी नीतियों को संविधान के अनुरूप बनाएं। न्यायालय ने कहा कि जाति आधारित काम सौंपना, जैसे निम्न जातियों को सफाई जैसे कार्य सौंपना और उच्च जातियों के लिए रसोई का काम आरक्षित रखना, संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है, जो जाति के आधार पर भेदभाव को रोकता है। अदालत ने कहा कि ये प्रथाएं न केवल असमानता को बढ़ावा देती हैं बल्कि कैदियों के सुधार और पुनर्वास में भी योगदान नहीं करती हैं।
जेल मैनुअल जाति आधारित पूर्वाग्रह
फैसले में कहा गया, “जेल मैनुअल जाति आधारित पूर्वाग्रह को बनाए नहीं रख सकते, किसी भी समूह को केवल साफ-सफाई जैसे काम तक सीमित नहीं किया जा सकता है।” अदालत ने अनुच्छेद 17 का भी हवाला दिया, जो छुआछूत को समाप्त करता है, और कहा कि जाति के आधार पर श्रम सौंपना छुआछूत का एक रूप है जो संवैधानिक लोकतंत्र में अस्वीकार्य है। सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश जेल मैनुअल की उन धाराओं को भी खारिज कर दिया, जो कुछ जातियों के कैदियों को निम्न कार्य करने के लिए बाध्य करती थीं। अदालत ने कहा कि इस तरह की प्रथाएं वर्ग आधारित पूर्वाग्रह को बढ़ावा देती हैं और मानव गरिमा का उल्लंघन करती हैं।
कोर्ट ने अनुच्छेद 23 का हवाला देते हुए कहा, “जेलों में जाति के आधार पर काम का विभाजन जबरन श्रम का रूप है, जो संवैधानिक रूप से अस्वीकार्य है।” इसके अलावा, अदालत ने ‘आदतन अपराधियों’ के वर्गीकरण की निंदा करते हुए, विशेष रूप से विमुक्त जनजातियों के लोगों को अपराधी के रूप में वर्गीकृत करने को असंवैधानिक घोषित किया। मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा, “विमुक्त जनजातियों के सदस्यों को ऐतिहासिक रूप से जन्मजात अपराधी माना जाता रहा है। यह वर्गीकरण उनके सम्मान का अपमान है और अनुच्छेद 21 का घोर उल्लंघन है, जो गरिमा के साथ जीवन का अधिकार देता है।” विमुक्त जनजातियां, वे समुदाय हैं जिन्हें ब्रिटिश शासन के दौरान आपराधिक जनजाति अधिनियमों के तहत 'जन्मजात अपराधी' के रूप में अधिसूचित किया गया था।
सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में भेदभाव के मुद्दे पर स्वत: संज्ञान लिया था
अदालत ने सभी राज्यों को अपने जेल मैनुअल को इस फैसले के अनुरूप संशोधित करने का निर्देश दिया है। साथ ही, अदालत ने यह भी आदेश दिया है कि दोषियों या विचाराधीन कैदियों के रजिस्टरों से जाति का संदर्भ हटा दिया जाए और कैदियों को खतरनाक परिस्थितियों में सीवर सफाई जैसे काम करने के लिए मजबूर न किया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में भेदभाव के मुद्दे पर स्वत: संज्ञान लेते हुए तीन महीने बाद अनुपालन की सुनवाई की घोषणा की है, जिसमें सभी राज्यों से अपने आदेशों के कार्यान्वयन पर स्थिति रिपोर्ट जमा करने को कहा गया है। जनवरी में न्यायालय ने इस मुद्दे पर केंद्र सरकार और अन्य संबंधित पक्षों को नोटिस जारी किए थे। पत्रकार और महाराष्ट्र निवासी सुकन्या शांथा द्वारा दायर याचिका के बाद, अदालत ने इस मामले पर संज्ञान लिया था। याचिका में जेल मैनुअल में मौजूद भेदभावपूर्ण नियमों को समाप्त करने की मांग की गई थी, जो सीधे संविधान के समानता के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं।
कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार किया जाना चाहिए- CJI
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, “जाति आधारित भेदभाव, चाहे प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष, गुलामी काल के शासन की एक विरासत है। संविधान के अनुसार कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार किया जाना चाहिए और उनके मानसिक और शारीरिक कल्याण का ध्यान रखा जाना चाहिए।” इस मामले में न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा भी शामिल थे। बेंच ने उन सभी राज्यों को निर्देश दिया जहां ऐसा भेदभाव जारी है। पीठ ने कहा कि वे अपने जेल नियमों में तुरंत बदलाव करें और तीन महीने के भीतर अनुपालन रिपोर्ट दाखिल करें। इसके साथ ही केंद्र सरकार को भी 2016 के मॉडल जेल नियमों में संशोधन करने के आदेश दिए गए हैं, जो राज्यों को अपराधियों को "आदतन अपराधी" के रूप में वर्गीकृत करने की अनुमति देते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस प्रकार के भेदभाव संविधान में निहित समानता के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और जेल अधिकारियों से कहा कि वे अपनी नीतियों को संविधान के अनुरूप बनाएं। न्यायालय ने कहा कि जाति आधारित काम सौंपना, जैसे निम्न जातियों को सफाई जैसे कार्य सौंपना और उच्च जातियों के लिए रसोई का काम आरक्षित रखना, संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है, जो जाति के आधार पर भेदभाव को रोकता है। अदालत ने कहा कि ये प्रथाएं न केवल असमानता को बढ़ावा देती हैं बल्कि कैदियों के सुधार और पुनर्वास में भी योगदान नहीं करती हैं।
जेल मैनुअल जाति आधारित पूर्वाग्रह
फैसले में कहा गया, “जेल मैनुअल जाति आधारित पूर्वाग्रह को बनाए नहीं रख सकते, किसी भी समूह को केवल साफ-सफाई जैसे काम तक सीमित नहीं किया जा सकता है।” अदालत ने अनुच्छेद 17 का भी हवाला दिया, जो छुआछूत को समाप्त करता है, और कहा कि जाति के आधार पर श्रम सौंपना छुआछूत का एक रूप है जो संवैधानिक लोकतंत्र में अस्वीकार्य है। सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश जेल मैनुअल की उन धाराओं को भी खारिज कर दिया, जो कुछ जातियों के कैदियों को निम्न कार्य करने के लिए बाध्य करती थीं। अदालत ने कहा कि इस तरह की प्रथाएं वर्ग आधारित पूर्वाग्रह को बढ़ावा देती हैं और मानव गरिमा का उल्लंघन करती हैं।
कोर्ट ने अनुच्छेद 23 का हवाला देते हुए कहा, “जेलों में जाति के आधार पर काम का विभाजन जबरन श्रम का रूप है, जो संवैधानिक रूप से अस्वीकार्य है।” इसके अलावा, अदालत ने ‘आदतन अपराधियों’ के वर्गीकरण की निंदा करते हुए, विशेष रूप से विमुक्त जनजातियों के लोगों को अपराधी के रूप में वर्गीकृत करने को असंवैधानिक घोषित किया। मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा, “विमुक्त जनजातियों के सदस्यों को ऐतिहासिक रूप से जन्मजात अपराधी माना जाता रहा है। यह वर्गीकरण उनके सम्मान का अपमान है और अनुच्छेद 21 का घोर उल्लंघन है, जो गरिमा के साथ जीवन का अधिकार देता है।” विमुक्त जनजातियां, वे समुदाय हैं जिन्हें ब्रिटिश शासन के दौरान आपराधिक जनजाति अधिनियमों के तहत 'जन्मजात अपराधी' के रूप में अधिसूचित किया गया था।
सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में भेदभाव के मुद्दे पर स्वत: संज्ञान लिया था
अदालत ने सभी राज्यों को अपने जेल मैनुअल को इस फैसले के अनुरूप संशोधित करने का निर्देश दिया है। साथ ही, अदालत ने यह भी आदेश दिया है कि दोषियों या विचाराधीन कैदियों के रजिस्टरों से जाति का संदर्भ हटा दिया जाए और कैदियों को खतरनाक परिस्थितियों में सीवर सफाई जैसे काम करने के लिए मजबूर न किया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में भेदभाव के मुद्दे पर स्वत: संज्ञान लेते हुए तीन महीने बाद अनुपालन की सुनवाई की घोषणा की है, जिसमें सभी राज्यों से अपने आदेशों के कार्यान्वयन पर स्थिति रिपोर्ट जमा करने को कहा गया है। जनवरी में न्यायालय ने इस मुद्दे पर केंद्र सरकार और अन्य संबंधित पक्षों को नोटिस जारी किए थे। पत्रकार और महाराष्ट्र निवासी सुकन्या शांथा द्वारा दायर याचिका के बाद, अदालत ने इस मामले पर संज्ञान लिया था। याचिका में जेल मैनुअल में मौजूद भेदभावपूर्ण नियमों को समाप्त करने की मांग की गई थी, जो सीधे संविधान के समानता के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं।
3rd October, 2024