विजय शंकर पंकज ( यूरिड मीडिया)
लखनऊ
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उत्तर प्रदेश के राजनीतिक समर में कांग्रेसी नेतृत्व छलावा का शिकार दिख रहा है। उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के लिए कांग्रेसी रणनीति इस प्रकार भ्रमित लग रही है कि यह साफ नही हो पा रहा है कि नेतृत्व अपने को छल रहा है या जनता को बेवकूफ समझ कर फिर से छलने का प्रयास कर रहा है। वैसे भी राजनीति एक छलावा ही होता है परन्तु बढ़ते शिक्षा के स्तर आैर जनता की जागरूकता ने राजनीतिज्ञों को भी अब नये आयाम अख्त्यिार करने को मजबूर कर दिया है। देश की सबसे पुरानी पार्टी आैर नेह डिग्री परिवार का नेतृत्व जिसके समक्ष संगठन में कोई चुनौती नही है, आज इतना मजबूर हो गया है कि उसके पास चुनावी रणनीति तैयार करने के लिए कोई नेता नही रह गया है आैर पार्टी को इवेन्ट मैनेजमेंट से पालिटिकल मैनेजमेंट के सेवाएं लेने को मजबूर होना पड़ा है।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की राजनीतिक रणनीति की स्थिति यह है कि पार्टी का संगठनात्मक ढ़ाचा खोखला हो गया है। प्रदेश में तीन दशक से सत्ता से दूर रही पार्टी के कुछ बचे-खुचे कांग्रेसी आैर चुनाव के समय मिलने वाली पार्टी से अच्छी खासी रकम की चाहत में है ज्यादातर प्रत्याशी सामने आते है। इस अन्तराल में पार्टी ने कभी भी संगठन को मजबूत करने पर ध्यान नही दिया जबकि शीर्षस्थ नेतृत्व सोनिया एवं राहुल की यही कर्मभूमि है। इस बीच कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कठपुतली बनाये गये। तीन वर्ष तक निर्मल खत्री के अध्यक्ष रहते उन्हें न तो अपने मनमाफिक संगठन बनाने दिया गया आैर नही वर्तमान राजबब्बर को। वैसे राजबब्बर अपना हश्र पहले से जानते है, इसलिए उन्हाेंने इस पचड़े में अपना पैर फंसाना ही उचित नही समझा। कांग्रेस नेतृत्व का यह दिवालियापन ही कहा जाएगा कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार कर मैनेजमेंट सलाहकार प्रशान्त किशोर की सलाह पर नया प्रदेश अध्यक्ष आैर मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी की घोषणा कर दी। प्रदेश कांग्रेस में प्रशान्त किशोर की हनक इतनी है कि कोई भी बड़ा नेता उनके काम में हस्तक्षेप नही कर सकता। संगठन का राज्य स्तर से लेकर जिला तक संगठन की कमान किसके हाथ होगी आैर टिकट किसे दिया जाएगा, यह सबकुछ प्रशान्त की मर्जी पर है।
पालिटिकल मैनेजमेंट का दूसरा पहलू कांग्रेस के खाते में ब्राह्मण आैर सवर्ण मतदाताओं को लाने की रणनीति। दशकाों से प्रदेश की राजनीति से दूर रही शीला दीक्षित को ब्राह्मण होने के नाते मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी बनाया गया है। मैने सैकड़ों शिक्षित लोगों से पूछा तो किसी ने दीक्षित परिवार की प्रदेश की राजनीति के बारे में किसी तरह के योगदान की जानकारी से मना किया। इसी प्रकार प्रदेश अध्यक्ष की कमान संभाल रहे राजबब्बर को पिछड़ा वर्ग का घोषित कर पेश किया जा रहा है ताकि कुछ लोग अतिरिक्त जुड़ जाय। पिछड़े वर्ग का कहने के बाद भी कोई पिछड़ा यह नही जानता कि उनकी जाति क्या है, वैसे उनकी पत्नी आैर बच्चे तो मुस्लिम है। प्रदेश में राजनीति में राजबब्बर की पहचान फिल्म एक्टर के ही रूप में है जो भीड़ इक्कठा कर सकते है परन्तु उसे वोट में नही बदल सकते। अब फिल्मी दुनिया में भी राजबब्बर चुके हुए एक्टर है। कांग्रेस के यह दोनों ही नेता विधानसभा चुनाव के सारथी आैर सवार है परन्तु दोनों ही चुनाव नही लड़ेगे। पंजाबी शीला दीक्षित उन्नाव के दीक्षित परिवार की बहू है। हालात यह है कि शीला उन्नाव से चुनाव लड़ने की ही स्थिति में नही है। यही नही कांग्रेस ने चुनावी तैयारियों के लिए जो भारी-भरकम टीम बनायी है, उसमें प्रमोद तिवारी को छोड़कर ऐसा कोई नेता नही है जो अपनी विधानसभा का चुनाव जीत सके। प्रमोद से अनजानी खिसियाहट के चलते कांग्रेस ने हमेशा उन्हें हाशिये पर रखा। यहां तक कि कांग्रेस छोड़ने वाले दो लोगों जगदम्बिका पाल तथा रीता जोशी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया आैर सपा से आये राजबब्बर को ऐन अहम मौके पर प्रदेश की कमान सौंपी गयी जबकि प्रमोद को नेता विधान मंडल दल के पद से भी हटा दिया गया आैर उन्हें संगठन में कभी कोई पद नही दिया गया जबकि प्रदेश में एकमात्र पार्टी के स्थापित चेहरे है। संजय सिंह अब अमेठी से अपने पुत्र के सामने हथियार डाल चुके है, जो भाजपा से चुनाव लड़ने की तैयारी में है।
देश की राजनीति में दशकों तक नेह डिग्री परिवार ब्राह्मण माना जाता था आैर इनका इस उच्च वर्ग में सम्मान था। समय के बदलते परिवेश के चलते अब स्थितियां बदल चुकी है। कुछ ब्राह्मण टाइटिल वाले चेहरों को आगे कर कांग्रेस नेतृत्व इस वर्ग का वोट हासिल करना चाहता है लेकिन इनको अपने पक्ष में लाने के लिए पार्टी के पास कुछ ठोस मुद्दा नही है। देश की राजनीति में जातीय आैर साम्प्रदायिक माहौल पैदा करने में सबसे ज्यादा योगदान कांग्रेस का ही है। यही कारण रहा कि ब्राह्मण-दलित आैर मुस्लिम वोट के बल पर कांग्रेस ने चार दशक से भी ज्यादा समय तक केन्द्र एवं राज्यों में हुकुमत की। अशिक्षित जन समुदाय को तब यह बाते समझ में नही आती थी। बसपा को दलित आैर सपा को पिछड़े यादव वर्ग का वोट मिलने की ठोस वजह है। इन दोनों दलों ने अपने समर्थक विरादरियों के लिए लीक से हटकर सपोर्ट किया है जबकि कांग्रेस ने अपने समर्थकों को साथ रखने के लिए कभी ठोस कोशिश ही नही की। इसके विपरीत कांग्रेस लगातार इनके नेताओं में उठापटक कराती रही। अब सोनिया- राहुल यह कहने की भी स्थिति में नही है कि वह ब्राह्मण, दलित तथा मुस्लिमों के हितैषी है। कांग्रेस का यही छलावा अब उसके लिए घातक हो गया है। यही कारण है कि जाति-फिरके में बंटा समाज के राजनीतिक खांचे में कोई भी वर्ग कांग्रेस पर विश्वास करने को तैयार नही है।
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उत्तर प्रदेश के राजनीतिक समर में कांग्रेसी नेतृत्व छलावा का शिकार दिख रहा है। उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के लिए कांग्रेसी रणनीति इस प्रकार भ्रमित लग रही है कि यह साफ नही हो पा रहा है कि नेतृत्व अपने को छल रहा है या जनता को बेवकूफ समझ कर फिर से छलने का प्रयास कर रहा है। वैसे भी राजनीति एक छलावा ही होता है परन्तु बढ़ते शिक्षा के स्तर आैर जनता की जागरूकता ने राजनीतिज्ञों को भी अब नये आयाम अख्त्यिार करने को मजबूर कर दिया है। देश की सबसे पुरानी पार्टी आैर नेह डिग्री परिवार का नेतृत्व जिसके समक्ष संगठन में कोई चुनौती नही है, आज इतना मजबूर हो गया है कि उसके पास चुनावी रणनीति तैयार करने के लिए कोई नेता नही रह गया है आैर पार्टी को इवेन्ट मैनेजमेंट से पालिटिकल मैनेजमेंट के सेवाएं लेने को मजबूर होना पड़ा है।
17th August, 2016