विजय शंकर पंकज ( यूरिड मीडिया)
लखनऊ
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विधान सभा का चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है, वैसे-वैसे दलित वोट बैंक की सबसे सशक्त बहुजन समाज पार्टी में बिखराव की लहर चल गयी है। बसपा प्रमुख मायावती को भी इस बिखराव के पीछे की असलियत का एहसास हो गया है, यही वजह है कि चुनाव रैली की शुरूआत करते हुए आगरा में उन्होने अपने दलित वोट बैंक पर ही पूरा ध्यान केन्द्रित किया। बसपा का इस बार चुनावी गणित दलित-मुस्लिम कम्बिनेशन पर ही आधारित होगा।
बसपा नेतृत्व को एहसास हो गया है कि प्रदेश के जातीय राजनीति के गणित में अब सवर्ण तथा पिछड़े केवल नारे से उनका साथ नही दे सकते है। प्रदेश में केवल मुस्लिम वोट बैंक ही ऐसा डांवाडोल है जो भाजपा विरोध के नाम पर अन्य दलों में जा सकता है। यही वजह है कि मायावती की अगली चुनावी रणनीति में दलित आैर मुस्लिम वोट बैंक को साधने की कवायद चल रही है। इसी रणनीति के तहत बसपा ने सवर्ण प्रत्याशियों के टिकट काटकर अधिकांश स्थानों पर सर्वाधिक 128 मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट दिये है। वैसे बसपा की इस रणनीति पर अभी तक इसलिए ठप्पा नही लगाया जा सकता है कि वहां पर ऐन मौके पर भी किसी का टिकट काटा जा सकता है।
बसपा ने 2007 का चुनाव सर्वसमाज के नारे पर जीता था आैर पहली बार उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी परन्तु उन 5 वर्षो में बसपा की सरकार ने गैर दलितों की जिस प्रकार उपेक्षा की, उससे पार्टी का अन्य जातियों में विश्वास उठ गया। बहुमत वाली सरकार से पूर्व मायावती ने सर्व समाज के नाम पर प्रदेश की सियासत में ब्राह्मण कार्ड खेला था। उस समय सपा की तत्कालीन मुलायम सिंह यादव सरकार में खराब कानून-व्यवस्था की स्थिति जनमानस में घर कर गयी थी। इस स्थिति में भाजपा तथा कांग्रेस अपने को सशक्त विपक्ष के रूप में पेश नही कर पाये। विकल्प हीनता की स्थिति में प्रदेश को यादवी आतंक से छुटकारा दिलाने के लिए जनता ने मायावती पर यकीन जताया। इस कड़ी में मायावती ने सर्वाधिक ब्राह्मण तथा क्षत्रिय प्रत्याशियों को टिकट दिया तथा उनके साथ ही पिछड़े तथा मुस्लिम गठजोड़ को भी रखा। सरकार बनने के बाद कुछ दिनों तक सभी वर्गो की सुनी गयी परन्तु समय के साथ मायावती सरकार अपने मूल दलित एजेन्डे पर आ गयी। प्रमोशन में आरक्षण ने दलितों के खिलाफ अन्य वर्गो के कर्मचारियों की नाराजगी बढ़ा दी। इसी प्रकार सभी विभागों की योजनाओं तथा ठेकों तक में दलितों की भागीदारी सुनिश्चित करने तथा अन्य वर्गो की उपेक्षा को लेकर जनता में यह विश्वास हो गया कि माया के राज में दलित आैर पैसे के अलावा अन्य किसी की पूछ नही हो सकती है। सरकार जाने के बाद भी टिकट के खेल के साथ ही विभिन्न कार्यक्रमों के नाम से पैसे का खेल जारी रहा जिससे देनदारों की भी सीमा रेखा खत्म हो गयी।
चुनावी वर्ष शुरु होते ही बसपा नेतृत्व ने एक इलेक्ट्रानिक चैनल के माध्यम से "फेक" सर्वेे रिपोर्ट प्रकाशित करा दिया जिसमें बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार का दावा किया गया। इससे स्थिति ऐसी पैनिक हुई कि गैर राजनीतिक नव धनाढ़यों ने बसपा के टिकट के लिए अपनी झोली खोल दी। इस प्रकार डेढ़ से दो वर्षो से जो घोषित प्रत्याशी अपने क्षेत्रों में खर्च कर रहे थे, उनसे आैर पैसे की मांग हुई आैर पूरा न करने पर अथवा दूसरे के द्वारा ज्यादा पैसा दिये जाने के प्रस्ताव पर लगभग 150 से ज्यादा लोगों के टिकट काट दिये गये। बसपा नेतृत्व ने पैसे का यह खेल पार्टी के बड़े नेताओं तथा पूर्व मंत्रियों पर चला आैर किसी को कोई रियायत नही दी गयी। ऐसे में हताश-निराश नेताओं को पार्टी छोड़ने को मजबूर होना पड़ा। बताया जाता है कि पिछले कुछ महिनों में ही बसपा के सवर्ण एवं पिछड़े वर्ग के 80 से ज्यादा प्रत्याशियों के टिकट काट दिये गये जिसमें से ज्यादा ने पार्टी छोड़ दी है आैर कई दलबदल करने की लाइन में है। इसके साथ ही दलित वर्ग के जुगल किशोर, दीनानाथ भास्कर तथा आर. के. चौधरी जैसे वरिष्ठ बसपा नेताओं को भी पार्टी छोड़ने को मजबूर होना पड़ा।
मायावती की मजबूरी आैर उसका स्वाभाविक अड़ियलपन है कि वह साथ छोड़ने वालों से बात करने को तैयार नही होती। सवर्ण आैर पिछड़े वर्ग के नेताओं के बसपा छोड़ने का चुनावी वर्ष में गलत संदेश गया है। वैसे भी इन वर्गो का बसपा पर कम ही भरोसा होता था परन्तु अपने वर्ग के नेताओं के साथ जुड़कर वह वोट देते थे। अब बसपा के लिए अपने दलित वोट बैंक के साथ मुस्लिम विरादरी का ही भरोसा है। वैसे मुस्लिम विरादरी के बसपा में आने वाले नेता ठोस दलित वोट मिलने की जुगत में आए हैं। जहां पर दलित आैर मुस्लिम वोट बैंक अच्छी खासी तादात में है, वहां बसपा को जीत की उम्मीद है। वैसे बसपा के जानकार बताते है कि मायावती जीत का दावा करने वाले नेताओं को हार की स्थिति में काफी खरी-खोटी सुनाती है। वर्ष 2012 के चुनाव में पंडी जी आैर भाईजान (मुस्लिम नेता) मायावती को जीत का भरोसा दिलाये थे परन्तु हार होने के बाद पंडी जी खरी-खोटी सुनने से पहले ही बिमारी का बहाना बनाकर भर्ती हो गये आैर भाई जान को इतनी गालियां मिली कि जीवन की पूरी थाती हो गयी। अब इस बार यह दोनों ऐसी किसी जीत का दावा करने से कतरा रहे है।
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विधान सभा का चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है, वैसे-वैसे दलित वोट बैंक की सबसे सशक्त बहुजन समाज पार्टी में बिखराव की लहर चल गयी है। बसपा प्रमुख मायावती को भी इस बिखराव के पीछे की असलियत का एहसास हो गया है, यही वजह है कि चुनाव रैली की शुरूआत करते हुए आगरा में उन्होने अपने दलित वोट बैंक पर ही पूरा ध्यान केन्द्रित किया। बसपा का इस बार चुनावी गणित दलित-मुस्लिम कम्बिनेशन पर ही आधारित होगा।
बसपा नेतृत्व को एहसास हो गया है कि प्रदेश के जातीय राजनीति के गणित में अब सवर्ण तथा पिछड़े केवल नारे से उनका साथ नही दे सकते है। प्रदेश में केवल मुस्लिम वोट बैंक ही ऐसा डांवाडोल है जो भाजपा विरोध के नाम पर अन्य दलों में जा सकता है। यही वजह है कि मायावती की अगली चुनावी रणनीति में दलित आैर मुस्लिम वोट बैंक को साधने की कवायद चल रही है। इसी रणनीति के तहत बसपा ने सवर्ण प्रत्याशियों के टिकट काटकर अधिकांश स्थानों पर सर्वाधिक 128 मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट दिये है। वैसे बसपा की इस रणनीति पर अभी तक इसलिए ठप्पा नही लगाया जा सकता है कि वहां पर ऐन मौके पर भी किसी का टिकट काटा जा सकता है।
बसपा ने 2007 का चुनाव सर्वसमाज के नारे पर जीता था आैर पहली बार उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी परन्तु उन 5 वर्षो में बसपा की सरकार ने गैर दलितों की जिस प्रकार उपेक्षा की, उससे पार्टी का अन्य जातियों में विश्वास उठ गया। बहुमत वाली सरकार से पूर्व मायावती ने सर्व समाज के नाम पर प्रदेश की सियासत में ब्राह्मण कार्ड खेला था। उस समय सपा की तत्कालीन मुलायम सिंह यादव सरकार में खराब कानून-व्यवस्था की स्थिति जनमानस में घर कर गयी थी। इस स्थिति में भाजपा तथा कांग्रेस अपने को सशक्त विपक्ष के रूप में पेश नही कर पाये। विकल्प हीनता की स्थिति में प्रदेश को यादवी आतंक से छुटकारा दिलाने के लिए जनता ने मायावती पर यकीन जताया। इस कड़ी में मायावती ने सर्वाधिक ब्राह्मण तथा क्षत्रिय प्रत्याशियों को टिकट दिया तथा उनके साथ ही पिछड़े तथा मुस्लिम गठजोड़ को भी रखा। सरकार बनने के बाद कुछ दिनों तक सभी वर्गो की सुनी गयी परन्तु समय के साथ मायावती सरकार अपने मूल दलित एजेन्डे पर आ गयी। प्रमोशन में आरक्षण ने दलितों के खिलाफ अन्य वर्गो के कर्मचारियों की नाराजगी बढ़ा दी। इसी प्रकार सभी विभागों की योजनाओं तथा ठेकों तक में दलितों की भागीदारी सुनिश्चित करने तथा अन्य वर्गो की उपेक्षा को लेकर जनता में यह विश्वास हो गया कि माया के राज में दलित आैर पैसे के अलावा अन्य किसी की पूछ नही हो सकती है। सरकार जाने के बाद भी टिकट के खेल के साथ ही विभिन्न कार्यक्रमों के नाम से पैसे का खेल जारी रहा जिससे देनदारों की भी सीमा रेखा खत्म हो गयी।
23rd August, 2016