यूरिड मीडिया ब्यूरो
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बसपा के संस्थापक स्व. काशीराम की रणनीति एव राजनैतिक दूरदर्शिता तथा पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की आक्रामक राजनीतिक कार्यशैली से पार्टी का ग्राफ 1989 से 2012 तक उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने तक बढ़ा था वह अब थमता दिखाई दे रहा है। लोकसभा चुनाव 2014 में बसपा के खाते न खुलता इसका उदाहरण है। लेकिन बसपा को घबड़ाने की नहीं बल्कि नया राजनीतिक समीकरण बनाने की जरूरत है क्योंकि राजनीति में कभी कोई स्थायी नही होता। 1984 के लोकसभा चुनाव में दो सीट पाने वाली भाजपा आज नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की केन्द्र में सरकार चला रही है। लोकसभा चुनाव 1984 में उ.प्र. शून्य खाता भाजपा का 2014 लोकसभा चुनाव में 80 मे से 73 सांसदों की संख्या में बदल गया। इसलिए प्रत्येक चुनाव का अपना एक मुद्दा एवं तत्कालीन राजनीतिक समीकरण होते है। 1952 से 1989 तक चुनावी सफर को देखें तो चन्द महीनों के अन्तराल 1967 एवं 1977 को छोड़ दे तो निरन्तर कांग्रेस की सरकार रही है। 1989 के बाद से देश एवं उत्तर प्रदेश में राजनीतिक बदलाव आया। इस बदलाव का फायदा बसपा ने खूब उठाया। पहले तिलक-तराजू एवं तलवार यानि ब्राहमण बनिया आैर राजपूत के खिलाफ आक्रामक रूख अपना करके दलितो में आत्म विश्वास व एक जुटता पैदा किया आैर फिर सर्वजन हिताए सर्वजन सुखाय नारा देकर सर्वसमाज को जोड़कर 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाया।
पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद दलितों की रहनुमाई करने वाली बसपा सुप्रीमों एवं उनके सहयोगी सत्ता की बुराइयों से बच नहीं सकें। परिणाम स्वरूप भ्रष्टाचार भाई भतीजा वाद परिवार-वाद एवं अपराधियों के खिलाफ कार्रवाही करने का बसपा का नारा चुनाव पूर्व में था उन्ही आरोपों से सरकार बनने के बाद मायावती सरकार भी घिर गयी। एन. आर. एच.एम घोटाला, दो-दो मुख्य चिकित्साधिकाररियो की हत्या, खनन घोटाला, मिड-डे मिल घोटाला, शराब घोटाला, पार्क घोटाला, स्मारक घोटाला, लखनऊ से लेकर नोएडा तक जमीन घोटाला, पंचायत एवं विधान परिषद चुनावों में परिवारवाद एवं भाई भतीजावाद का बोल-बाला ऐसे तमाम मुद्दो से बसपा सरकार घिर गयी परिणाम 2012 में अखिलेश यादव के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की सपा सरकार बन गयी। याद दिलाना है कि 2003 से 2007 तक के सपा सरकार के अपराध एवं भ्रष्टाचार से परेशान होकर मायावती नेतृत्व में जनता ने भरोसा जताया आैर पूर्ण बहुमत की सरकार बनी।
बसपा के राजनीतिक सफर विशेषकर 1989 के बाद से नजर डाले विधान सभा चुनाव 1989 एवं 1991 में 9.33 प्रतिशत तथा 9.52 प्रतिशत मत पाकर 13 एवं 12 सीटो पर विजय हासिल किया। 1993 में स्व.काशीराम ने सपा नेता मुलायम सिंह यादव से चुनावी गठबन्धन करके दलित एवं पिछड़ो के गठबन्धन पर चुनाव लड़ा जिसका अप्रत्याशित लाभ मिला। 1991 की 12 सीट बढ़कर 67 हो गयी आैर मत-प्रतिशत 9.52 प्रतिशत से बढ़कर 11.11 प्रतिशत हो गया। मत प्रतिशत कम बढ़ा क्योंकि गठबन्धन में मात्र 126 सीटों पर बसपा चुनाव लड़ी थी लेकिन सीटे पांच गुना से अधिक बढ़ी चुनाव बाद बसपा एवं सपा की मुलायम सिंह यादव की गठबन्धन की सरकार बनी। सत्ता पाने के लिए दलित एवं पिछड़ो का गठबन्धन तो कारगर रहा लेकिन सत्ता चलाने के लिए प्रयोग असफल रहा। स्वा. काशीराम एवं मायावती की सत्ता से अपेक्षाए पूरी नही हुई परिणाम स्वरूप बसपा ने समर्थन वापस लिया आैर 02 जून 1995 को गेस्ट हाउस काण्ड जैसा शर्मसार करने वाली घटना घटी। इस घटना में बसपा को भाजपा एवं कांग्रेस दोनो दलों ने अपने-अपने तरीके से समर्थन दिया। गेस्ट हाउस में भाजपा नेता ब्रह्मदत्त द्विवेदी सहित भाजपा के कई नेताओं ने मायावती को हमलावारों से बचाया आैर समर्थन देकर मायावती नेतृत्व में बसपा एवं भाजपा गठबन्धन की सरकार बनायी। गठबन्धन सरकार बनाने में दलितों से सहानुभूति लेने के लिए केन्द्र में तत्कालीन कांग्रेस की पी.वी. नरसिन्हा राव की सरकार ने बसपा एवं भाजपा गठबन्धन की सरकार बनवाने में पूरा सहयोग किया आैर तत्कालीन राज्यपाल मोती लाल बोरा गठबन्धन सरकार की शपथ दिलायी। सरकार बनने के बाद स्व. काशीराम का पहला एजेन्डा पूरा हो गया कि बसपा उ.प्र. में सरकार बना सकती है लेकिन दूसरा सर्वसमाज जोडने का एजेन्डा अधूरा रह गया था जिसे 1996 में कांग्रेस से चुनावी गठबन्धन करके पूरा किया। 1993 में पिछड़ा-दलित गठबन्धन एवं 1996 में कांग्रेस गठबन्धन से सर्वण एवं अल्पसंख्यकों को जोड़ने से बसपा संस्थापक की मंशापूरी हो गयी। इस चुनाव मे बसपा को 1993 की तुलना में अधिक यानी 296 सीटों पर चुनाव लड़ने से मत प्रतिशत 19.65 प्रतिशत हो गया लेकिन सीटे 67 ही रह गयी। चुनाव बाद किसी दल को पूर्ण बहुमत न मिलने से राष्ट्रपति शासन रहा । बाद में भाजपा ने 6-6 माह का सत्ता गठन का समझौता करके दूसरी बार मायावती नेतृत्व में गठबन्धन सरकार बनायी। बसपा ने छ: माह की सरकार का समय पूरा किया लेकिन सत्ता हस्तान्तरित होने के बाद भाजपा नेता कल्याण सिंह के नेतृत्व में बनी, गठबन्धन की सरकार से बसपा ने समर्थन वापस ले लिया। इस समर्थन वापसी के बाद 2 जून 1995 की तरह लोकतंत्र को शर्मसार करने वाली घटना घटी/फर्क यह था कि 02 जून 1995 की घटना विधानसभा के बाहर घटित हुई थी आैर 1997 की घटना विधानसभा के अन्दर घटित हुई। परिणाम यह रहा कि विधानसभा में हुए मार-पीट के बाद राजनीतिक दलों को तोड़कर कल्याण सिंह नेतृत्व में भाजपा सरकार बनाने मे सफल रही आैर कार्यकाल पूरा किया। भाजपा के आन्तरिक लड़ाई में कल्याण सिंह को कुर्सी गंवानी पड़ी , राम प्रकाश गुप्ता आैर फिर राजनाथ सिह मुख्यमंत्री बने।जिनके नेतृत्व में 2002 में विधान सभा चुनाव हुए। इस चुनाव में बसपा अकेले लड़ी जिसमें मत प्रतिशत बढ़कर 23.18 प्रतिशत आैर सीटे 67 से 98 हो गयी। 2002 विधानसभा चुनाव में भी किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। राष्ट्रपति शासन लागू हुआ।कुछ माह बाद तीसरी बार भाजपा ने समर्थन देकर मायावती नेतृत्व में बसपा एवं भाजपा गठबन्धन की सरकार बनायी। भाजपा के लगातार तीसरी बार समर्थन देकर बसपा सरकार बनवाने से स्व.काशीराम का दूसरा एजेन्डा पूरा हो गया आैर बसपा विकल्प के रूप में उत्तर प्रदेश में मजबूत राजनीतिक दल बनकर खड़ी हो गयी। बसपा एवं सपा तथा बसपा एवं कांग्रस चुनावी गठबन्धन तथा भाजपा समर्थन से तीन बार सरकार बनाने मे बसपा का जनाधार सभी वर्गो में बढ़ा कांग्रेस एवं भाजपा कमजोर हई। 2007 में पूर्ण बहुमत सरकार बनने के बाद बसपा नेताओं एवं सरकार में सत्ता के अवगुण आ गये, परिणाम स्वरूप भाजपा एवं कांग्रेस की कमजोरी का लाभ उठाकरके सपा विकल्प के रूप में उभरी आैर 2012 में पूर्ण बहुमत सरकार बनायी,अखिलेश यादव के नेतृत्व में पांच वर्ष पूरे होने जा रहे है। लेकिन बसपा 2007 की तरह विकल्प के रूप में अकेली मजबूत पार्टी नहीं रह गयी है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र की सरकार आैर भाजपा राष्ट्रीय अध्टक्ष अमितशाह पूरी ताकत एवं अति-पिछड़ो तथा सवर्ण व दलित मतदाताओ को जोड़ने का प्रयास करके एक मजबूत विकल्प तैयार कर रहे है । कांग्रेस 1989 के बाद नेता एवं मुद्दो के साथ पहली बार मैदान में उतरी है इसलिए बसपा के लिए 2007 जैसा माहौल नहीं है।
2017 विधानसभा चुनाव एवं बसपा की चुनौती--
विधानसभा चुनाव 2017 बसपा मुखिया मायावती के लिए एक चुनौती है। बसपा संस्थापक स्व. काशीराम ने जिस तरह दूरदृष्टि से दलित को सम्मान, सत्ता में भागीदारी का खाका एवं कार्ययोजना बनायी थी उसका लाभ मायावती ले चुकी है। अब मायावती की राजनीतिक कौशल से ही दलितों का बसपा से जुड़ाव बना रहेगा आैर सत्ता में भारीदारी का अवसर भी रहेगा। वर्तमान राजनीतिक माहौल में विधानसभा 2017 के लिए बसपा का चढ़ता ग्राफ ठहर गया है। बसपा के राजनीतिक सफर एवं चुनावीं परिणाम स्पष्ट है कि पार्टी को अपने दलित आधार वोट बैंक को बनाये रखने के साथ-साथ अन्य वर्गो को भी जोड़ना जरूरी है। राजनीतिक घटना क्रम इस बात के गवाह भी है कि चुनाव में एक मुद्दा एक ही बार चलता है 1989, 1991, में अकेले लड़कर बसपा ने राजनीतिक पहचान बनायी। 1993 एवं 1996 में सपा व कांग्रेस से चुनावी गठबन्धन तथा 1995, 1997, 2002 में भाजपा समर्थन से सरकार बनाकरके एक चतुर राजनीतिक की तरह बसपा नेतृत्व में सफलता अर्जित किया। इसका फायदा 2007 में दलित , ब्राह्माण गठ-जोड़ एवं अल्पसंख्यको का समर्थन तथा सपा सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाकर पूर्ण बहुमत सरकार बनायी।
2017 में स्थितियां विपरीत है। बसपा को 2012 में मिले 25.91 प्रतिशत मत मेंे भी सेध लग चुकी है क्यों कि बसपा के इस वोट में 7 मे 8 प्रतिशत मत अति-पिछड़ो एवं सवर्णे का भी शामिल था। मायावती 2007 की तरह दलित-ब्राह्मण कार्ड के स्थान पर दलित-अल्पसंख्यक समीकरण बनाने पर जुटी है वह 2007 की तरह कारगर साबित होगा ऐसा सम्भव नही है। बसपा के अति-पिछड़ी जाति एवं दलित व ब्राह्मण नेता पार्टी छोड़ रहे है। अल्पसंख्यको को अधिक से अधिक सीट देने से दलित अल्पसंख्यक गठबन्धन से भाजपा को फायदा मिलने की सम्भावना है। सपा सरकार के पांच वर्ष कार्यकाल से सत्ता मेंे लाभ उठाने से यादव एवं मुस्लिम है ऐसी एक धारण प्रदेश भर मतदाताओं में बनी हुई है। ऐसे में दलित-मुस्लिम गठजोड़ से बहुसंख्यक मतदाताओं में भाजपा के साथ धुव्रीकरण भी हो सकता है दूसरा पिछड़ी जाति जिनकी आबादी 52 प्रतिशत है इनमें यादव/कुर्मी पहले ही बसपा से अलग आैर बसपा के आधार वोट बैंक में शामिल अतिपिछड़ी , मौर्य, कश्यप, प्रजापति, व अन्य जातियां भी भाजपा के साथ जुड़ती नजर आ रही है। दयाशंकर सिंह प्रकरण से राजपूत मतदाता बसपा से बहुत दूर चले गये है। 2007 में सत्ता के पावदान तक पहुचाने वाला ब्राह्मण भी मायावती की कार्यशैली में दूर होता जा रहा है ऐसे में केवल दलित एवं अल्पसंख्यक मत बसपा को लाभ नहीं मिल सकता। यहां यह भी स्पष्ट है कि मुस्लिम मतदाता किसी भी दल के प्रति कटिबद्ध नहीं रहा है हां चुनावो में राजनीतिक समीकरण के अनुसार भाजपा प्रत्याशी को हराने वाले या सीधी टक्कर देने वाले प्रत्याशी के साथ रहा है वह गैर भाजपाई किसी दल का प्रत्याशी भी हो सकता है। अब राजनीतिक चेतना के चलते सभीवर्ग मतदाता नेताओं की चालबाजी समझ गये है इसलिए विकास एवं निजी लाभ को प्राथमिकता देने वाले "फ्लोटिंग मतदाता" बढ़ते जा रहे है। जिनकी संख्या एकअनुमान के अनुसार दस प्रतिशत हो गयी है आैर यही "फ्लोटिंग मतदाता" 2007 में मायावती एवं 2012 में सपा की पूर्ण बहुमत सरकार बनवाये है। मायावती के पक्ष में जातीय एवं धार्मिक समीकरण बहुत सकारात्मक नही है केवल आैर केवल कानून व्यवस्था ही एक ऐसा मुद्दा है जो सपा के विकल्प के रूप में बसपा को सीधी लड़ाई में लाता है। भ्रष्टाचार एवं परिवारवाद व अन्य मुद्दे सपा के खिलाफ बसपा का चुनावी मुद्दा नहीं बन सकता है। क्योंकि बसपा नेताओं पर भी गम्भीर भ्रष्टाचार आैर भाई भतीजावाद परिवार वाद का आरोप है जिसे मतदाता प्रत्यक्ष रूप से देख भी रहे है आैर जांच एजेन्सियाँ जांच भी कर रही है। इसलिए मायावती पर लग रहे टिकट बेचने के आरोप एवं जातीय/धार्मिक सन्तुलन पर वर्तमान राजनीतिक समीकरण देखते हुए 2017 चुनावी रणनीति से आवश्यकतानुसार बदलाव की अत्यन्त जरूरत है आैर बसपा ऐसा माहौल बनाएं कि चुनावी मुद्दा कानून व्यवस्था बन जाए, तो इसका सीधा लाभ मायावती को मिल सकता है।
11th October, 2016