21 सितम्बर 2016
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव --
दिशाहीन है राजनीतिक दल
विजय शंकर पंकज (यूरिड मीडिया)
लखनऊ।
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में अब लगभग 5 माह का ही समय रह गया है लेकिन अभी तक राज्य में सरकार बनाने के दावेदार सभी राजनीतिक दल चुनाव एजेन्डे आैर जनसमस्याओं को लेकर दिशाहीन है। कानून- व्यवस्था सुधारने आैर विकास के दावे अवश्य राजनीतिक रैलियों में किये जा रहे है परन्तु राजनेताओं के इन दावों में सच्चाई का पुट तक नही है। यही वजह है कि नेताओं के भाषणों में जनता को प्रभावित करने वाले शब्दों का जोर नही है। कुछ देर तक उपहार बांटने तथा कर्ज माफी आदि तरह के लुभावने वादे करने में भी जुटे है परन्तु इनके वादों पर जनता का भरोसा नही जम पा रहा है। चुनावी वादों से सभी दल राज्य के चुनावी गणित को देखते हुए जातीय समीकरण साधने में लगे हुए है। प्रदेश में दर्जनों राजनीतिक दलों के पंजीकरण के बाद भी केवल चार ही दल सत्ता संघर्र्र्र्ष में चल रहे है। फिलहाल चुनावी संग्राम में इन दलों की स्थिति इस प्रकार है।
सपा
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सत्तारूढ़ समाजवादी सरकार के खिलाफ कानून-व्यवस्था ध्वस्त होने, सपाई कार्यकर्ताओं की राज्य में चल रही गुन्डागर्दी तथा जमीन कब्जाने की घटनाएं सरकार की छवि को प्रभावित कर रही है तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव लगातार विकास के दावे के साथ ही सभी चुनावी वादे पूरे करने की भी घोषणा कर रहे है। साढ़े चार वर्ष की सरकार में अखिलेश सरकार कानून-व्यवस्था आैर गुण्डागर्दी के आरोपों से मुक्त नही हो पाये। अखिलेश सरकार पर यह आरोप विपक्ष से ज्यादा उनके पिता तथा सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ज्यादातर सार्वजनिक सभाओं में करते रहे। मुलायम सिंह प्रदेश की राजनीति के वह नेता है जिनकी सरकार के खिलाफ 2007 में खराब कानून-व्यवस्था के आरोपों से ही बसपा पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव सपा के चुनावी वादे पूरे करने के जो भी वादे कहे परन्तु कई महत्वपूर्ण वादों को शायद वह भूल ही गये। पहले मुलायम सरकार ने बेरोजगारी भत्ता की शुरूआत की आैर 2012 के चुनाव में यह भत्ता बढ़ाकर 1000 रूपये प्रतिमाह करने का वादा किया गया जिसका चुनाव में लुभावना असर हुआ परन्तु सरकार बनने के बाद सपा सरकार ने हाथ पीछे खींच लिया। छात्रों को लैपटाप आैर आईपैड देने का वादा भी आधा- अधूरा ही रहा। इसी प्रकार बेसिक छात्रों को मुफ्त किताबे आैर ड्रेस देने का हर वर्ष का वादा अभी तक कभी पूरा ही नही हुआ।
अखिलेश सरकार के चार साल के शासन में हुआ, वह यादव कुल के जवानों को सरकारी नौकरी में किसी भी तरह से पहुंचाने का प्रयास सफल रहा। इसके लिए भर्ती करने वाली सारी संवैधानिक संस्थाओं का क्रिया कलाप भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। इसके साथ ही सभी कमाऊ पदों तथा पुलिस थानों पर यादव कुल के लोगों को ही प्रमुख जिम्मेदारी दी गयी। मुस्लिम हितों के संरक्षण की बात अवश्य की गयी परन्तु कानून-व्यवस्था आैर दंगों के मामलों में ही उनके अपराधिक तत्वों को संरक्षण दिया गया। शिक्षा तथा रोजगार के लिए कोई पहल नही की गयी।
मुख्यमंत्री अखिलेश लगातार विकास के वादे करते रहे जिसमें लखनऊ मेट्रो उनकी उपलब्धि रही परन्तु आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस के पीछे की कहानी कुछ आैर ही कहती है। प्रदेश में तमाम दावों के बाद भी सड़कों आैर नहरों की हालत अत्यन्त खराब है। इन तमाम उंच-नीच के बीच चुनाव से कुछ माह पूर्व सैफई के यादव कुल में सत्ता को लेकर जो संघर्ष शु डिग्री हुआ है, उसने पूरे राजनीतिक समीकरण को बदल दिया है। यदुबंश एकता को जो भी दावा करे परन्तु इस घटना ने सपा के राजनीतिक भविष्य की पटकथा लिख दी है। यह संघर्ष आैर बढ़ने के ही आसार है। चुनाव बाद ही इसका पटाक्षेप होने की संभावना है। ऐसे में सपा के पास भी यादव समर्थकों के अलावा मुस्लिमों के ही साथ का विश्वास है। नौकरियों में यादवों को जिस प्रकार तरजीह दी गयी है तथा अन्य वर्गो के योग्य छात्रों की उपेक्षा की गयी है , उसका सपा सरकार के खिलाफ प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। अखिलेश सरकार ने चुनाव से पहले किसानों को स्मार्ट फोन देने का भी वादा किया है परन्तु बेरोजगारी भत्ता तथा लैपटाप से बंचित युवा किसान इस वादे पर कितना विश्वास करेगा, यह समय बताएगा।
बसपा
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वर्ष 2007 में "" सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय"" के नारे के साथ बसपा ने राज्य में पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी। इसके पीछे तत्कालीन मुलायम सरकार मेम खराब कानून-व्यवस्था को लेकर जनता के आक्रोश का भी प्रभाव रहा। उस समय तक भाजपा तथा कांग्रेस विपक्षी दल सपा का पूरजोर विरोध करने में अपना पक्ष नही रख सके आैर बसपा की आक्रामक नीति ने जनता के विश्वास को अपने पक्ष में कर लिया। मुख्यमंत्री मायावती के 5 वर्ष के शासनकाल में भ्रष्टाचार आैर सर्वजन हितों को छोड़कर हर हाल में दलितों हितों को साधने की प्रवृति ने जनत के बीच बसपा के मूल चरित्र का पर्दाफाश कर दिया। इस पर प्रमोशन में आरक्षण देकर मायावती सरकार ने सवर्ण एवं पिछड़ों के विश्वास को ही तोड़ दिया। वर्ष 2012 में चुनाव हारने के बाद भी बसपा मुखिया द्वारा सांसदों, विधायकों तथा अन्य पार्टी पदाधिकारियों से चल रही वसूली की चर्चाओं ने पार्टी में आक्रोश पैदा कर दिया। लोकसभा चुनाव में इसका बसपा के खिलाफ माहौल बना जिससे पार्टी का एक भी सांसद जीत नही सका। लगातार धन उगाही से परेशान पार्टी के कई बड़े नेता दल छोड़ गये। हालात यहां तक पहुंच गये है कि अब बसपा के समर्थन में दलितों के साथ अन्य वर्गो का समर्थन हासिल नही हो पा रहा है। मायावती ने मुसलमानों को लुभाने के लिए 130 से ज्यादा सीटों में मुस्लिम प्रत्याशी खड़ा किया है। अब दलित-मुस्लिम गठबंधन ही बसपा का भविष्य तय करेगा।
भाजपा
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वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की बहुमत की सरकार बनने के बाद से भाजपा का पलड़ा भारी चल रहा है परन्तु जनता को तमाम मुद्दों पर जिस प्रकार अपेक्षा थी, उस पर सरकार खरी नही उतरी है। भ्रष्टाचार कम हुआ है परन्तु महंगाई ने जनता की कमर तोड़ दी है। ढाई वर्ष के मोदी सरकार के कामकाज से भाजपा कार्यकर्ता दुखी है आैर सरकार से संगठन स्तर पर वह उपेक्षित महसूस कर रहा है। मंत्री से पार्टी के नेता तक कार्यकर्ताओं से नही मिलते। भाजपा संगठन अब राजनीतिक दल से ज्यादा मैनेजमेंट की भेंट चढ़ गया है। अब पैसे आैर मैनेजमेंट से बड़ी सभाए कर भाजपा नेता गदगद हो रहे है। वोटर लिस्ट से कागजी बूथ लिस्ट तैयार कर पदाधिकारी वरिष्ठ नेताओं से अपनी पीठ ठुकवा रहे है। पार्टी में दूसरे दलों से आये नेताओं की बाढ़ से भाजपा कार्यकर्ता दुखी है आैर इनके सामन्जस्य बैठाना संभव नही लगता। ऐसे में पार्टी को चुनाव के समय प्रतिकूल परिस्थिति का सामना करना पड़ सकता है। प्रदेश में भाजपा के खिलाफ दलित, यादव आैर मुस्लिम वोट बैठक एक तरफा खिलाफ है। भाजपा के लिए अनुकूल यह है कि दलित-यादव को छोड़ ज्यादातर सवर्ण एवं पिछड़ी जातियां भाजपा के समर्थन मेें खड़ी है। भाजपा के पक्ष में रहने के लिए इन वर्गो की विकल्प हीनता भी है जिनका सपा एवं बसपा में अपना हित साधन नही महसूस हो रहा है। प्रदेश में भाजपा का कोई सर्वमान्य नेता भी नही है। इसके कारण विधानसभा चुनाव में भी भाजपा को मोदी के नाम का ही सहारा है। यह मोदी मंत्र बिहार एवं दिल्ली में फेल हो चुका है। ऐसे में सही चुनावी रणनीति नही अपनायी गयी आैर प्रत्याशी चयन में भाई-भतीजावाद होने पर पार्टी को भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
कांग्रेस
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उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में कांग्रेस अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। इसके लिए कांग्रेस को अपनी राजनीतिक सिपहसालारों पर विश्वास न होकर पालिटिक्ल इवेन्ट मैनेजमेंट के रूप में उभरे प्रशान्त किशोर की सेवाएं ली गयी है। प्रदेश की चुनावी तैयारियों के लिए कांग्रेस ने भी जातीय समीकरण आजमाया है परन्तु पहले फेस में ही इसकी कलई खुल गयी है। सपा से आये फिल्मी दुनिया के राज बब्बर को कांग्रेस ने जिस प्रकार प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौपी उससे साफ हो गया है कि कांग्रेस के पास अब कोई राजनीतिक चेहरा नही है। यही नही दिल्ली से लाकर शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री का दावेदार घोषित किया गया जो उम्र एवं राजनीतिक दृष्टिकोण से चार दशक पीछे चली गयी है। ऐसे चेहरों के बल पर कांग्रेस कैसे चुनाव लड़ेगी, यह तो समय बताएगा परन्तु यह तो साफ है कि इनके नाम से जातीय वोट कांग्रेस को मिलना मुश्किल होगा। चुनावी तैयारियों के बीच कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की खाट पंचायत चल रही है। यह खाट पंचायत पश्चिम की देन है परन्तु इसे पूरब, मध्य एवं बुन्देलखंड में भी आजमाया जा रहा है। इस पंचायत के नाम से चल रही राहुल की यात्रा में राज्य विधान सभा चुनाव की झलक ही नही मिल रही है। पूरा भाषण केन्द्र एवं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरोध पर टिका है। इससे यह जन प्रतिक्रिया आ रही है कि कांग्रेस विधानसभा चुनाव न लड़कर अगले 2019 के लोक सभा चुनाव की तैयारी कर रही है।
प्रदेश में इन चार प्रमुख दलों की चल रही चुनावी तैयारियों एवं राजनीतिक स्थितियों से साफ है कि अभी तक किसी के भी पक्ष की हवा खुलकर नही चल रही है। हालांकि चुनावी समीकरणों से यह तो साफ है कि इस बार छोटे दलों की भूमिका वोट काटने की नही होगी आैर चुनाव तक जनता पूर्ण बहुमत की सरकार का मन बना लेगी। इसमें जो भी दल पिछड़ेगे, वह बहुत पीछे हो जाएगा। ऐसे में प्रत्याशी चयन से लेकर चुनावी रणनीति की ठोस कार्रवाई करनी होगी। राजनीतिक दलों को अपने चुनावी वादों पर भी जनता को विश्वास दिलाना होगा।
21st September, 2016