विजय शंकर पंकज (यूरिड मीडिया)
लखनऊ।
उत्तर प्रदेश की पूरी यादव विरादरी परेशान है। यादवी बंश वेली को किसकी नजर लगी है। मुलायम सिंह यादव ने जिस समाजवादी वृक्ष को लगाया। खून-पसीने से सींचा। बेटे अखिलेश ने उसे नयी खाद आैर ऊर्जा दी। अभी तो यह हरहराना ही शुरु किया था कि डालिया कटने लगी। लगता है कि किसी दुश्मन ने पेड़ के तने में ही मठ्ठा डाल दिया है। दुग्ध उत्पादों से जीवन्त होने वाला यदुबंश अब उसी के मठ्ठे के खटराग से सिसकने लगा है। यदुबंश के इस मठ्ठे को मथने वाला आैर उसे जन-जन तक पहुंचाने वाले कौन है?
इस तरह की तमाम तरह की चर्चाए आज प्रदेश के हर अहिराने से लेकर गांव की गलियों तक में हो रही है। इसकी आंच बिहार तक जा पहुंची है। उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार तक के यादवी रिश्तेदार बंश बेली पर हो रहे इस आघता से खासे चिन्तित है परन्तु मठ्ठा मथने वाले आैर उसे जड़ो में डालने वालों की पहचान के बाद भी कोई उनकी तरफ अंगुली उठाने की हिम्मत तक नही कर पा रहा है। चचेरे भाई राम गोपाल ने थोड़ी सी हिमाकत की तो उन्हें जो खामियाजा भुगतना पड़ा कि पूरे राजनीतिक जीवन में इस तरह कभी अलग-थलग नही पड़े। यदुबंश का यह "कोल्ड वार" अभी खत्म नही होने वाले है। हालात यह हो गये है कि जब तक दोनों ही पक्ष एक दूसरे के वार से घायल हो मैदान में खेत न हो। स्थिति यहां तक पहुंच गयी कि जिस डा. राम मनोहर लोहिया के नाम पर समाजवाद का परचम लहराने का दावा करने वाले यदुबंशी वीर आमने -सामने एक दूसरे से नजर भी नही मिला रहे है। लोहिया की मूर्ति पर बुधवार को पहले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पुष्प चढ़ाने पहुंचे। चचा शिवपाल मौजूद थे परन्तु दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखने की भी हिमाकत नही की। चचा अपने पाले हुए भतीजे को मुख्यमंत्री की रौब से आकर कार्यक्रम निपटाते असहाय से देखते रहे। भतीजे ने चचा की उम्र आैर उनकी सेवाओं का भी ख्याल नही रखा आैर बिना पावलगी किये ही किनारे से खिसक लिया। चचा भी ऐंठ में रहे। अपने कारनामे याद नही आ रहे। इसे मैने अंगुली पकड़ कर चलना सिखाया है, अब यह इतना बड़ा हो गया कि मुझे अंगुली दिखाये। खैर दोनों अपने मन में ही एक दूसरे के खिलाफ खटराग अलापते रहे। किसी की आवाज नही निकली। थोड़ी देर बाद मुख्यमंत्री के पिता श्री मुलायम सिंह यादव पहुंचे तो चचा के चेहरे में रौनक लौटी। भतीजा न सही परन्तु बड़े भाई आैर भाभी तो मेरे ही पक्ष में है फिर मुझे किस बात की चिन्ता। खैर कुटील मुस्कान के साथ शिवपाल यादव बड़े भाई आैर सपा मुखिया के स्वागत में गुलदस्ते लेकर पहुंचे। इस बीच पार्टी के अमरत्व प्राप्त कुछ नेता दोनों ही तरफ की गतिविधियों पर निगाह लगाये हुए थे। मौका देखते ही वह भी मुलायम-शिवपाल के कान फूंकने लगे।
यादवों को मुस्लिम सहयोग की चिन्ता
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पूरी यादवी विरादरी गुस्से आैर तनाव में है। चिन्तित है विरादरी के रखवाले। काफी संघर्षो के बाद यह हैसियत बनायी थी, जो अब छिन्न-भिन्न होती दिख रही है। अब समाजवादी यदुबंशीय परिवार के विवाद में यादव किधर जाएगा। प्रदेश मे यादवों के नेता तो अभी भी मुलायम सिंह यादव ही है। लेकिन युवा यादव पीढ़ी अखिलेश के नाम पर उनका विरोध करने में भी पीछे नही हटेगी। मुलायम के संरक्षण में फिर से ठौर जमाने वाले शिवपाल यादव को न तो पुराना अौर नही पीढ़ी का यादव अपना नेता मानने को स्वीकार है। मुलायम सिंह यादव की यादवी विरासत का उत्तराधिकार तो अखिलेश के खाते में चला गया है परन्तु खाली यादव के समर्थन से राजनैतिक हैसियत कायम रखना संभव नही होगा। अभी तो मुसलमानों के मसीहा मुल्ला मुलायम ही है। मुसलमान मुलायम के एवज में अखिलेश को कितना तरजीह देगा, इसका किसी को भान नही हो रहा है। पारिवारिक विवाद में यादवों केे साथ से मुसलमान खिसक गया तो सब कुछ तिनका-तिनका बिखर जाएगा। यादवों को राजनैतिक हैसियत कायम रखने के लिए मुसलमानों का साथ जरूरी है।
प्रदेश में 9 प्रतिशत यादव है तो 16 प्रतिशत मुसलमान। इसी प्रकार 21 प्रतिशत दलित वोट बैंक है। सपा के पास पिछड़ा यादव तथा अन्य के साथ मुस्लिम वोट बैंक का बड़ा सहारा है तो बसपा को भी अपनी राजनैतिक हैसियत कायम रखने के लिए दलित के साथ ही मुस्लिम वोट बैंक की जरूरत है। बसपा के पास इस समय दलित के अलावा अन्य कोई भी साथ नही खड़ा है। यही वजह है कि लखनऊ की चुनावी रैली में बसपा सुप्रीमो मायावती ने मुस्लिम मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए समाजवादी यदबंशी परिवार के आपसी कलह को हथियार बनाते हुए कहा कि जब वो आपस में ही एक नही है तो दूसरा उनके साथ कहा जाएगा। मुसलमान सपा को वोट देकर भाजपा की ही मदद करेंगे। मुसलमानों को लुभाने के लिए बसपा ने सर्वाधिक 130 मुस्लिम प्रत्याशी घोषित किये है। वैसे पिछले चुनावों में मुस्लिम मतदाताओं की रूझान भाजपा के विरोध में क्षेत्रवार जो प्रत्याशी मजबूत होता है, उसी के पक्ष में जाता है।
गांधारी का श्राप
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यादव विरादरी में आज कल "गांधारी के श्राप" को लेकर तरह-तरह की भ्रान्तियां चर्चा में है। यह ऐसे दावानल की तरह घर-घर में घूंस गयी है कि पूरा समाज अनजाने भय से आशंकित है। इस तरह की चर्चा को किसने किस प्रकार अंजाम दिया परन्तु यह पूरे प्रदेश में आम चर्चा बन गया है। चर्चा यह है कि यदुबंश को महाभारत काल के कौरवों की मां गांधारी का श्राप है कि जब-जब यदुबंश अपने सत्ता के चरम पर होगा, तब-तब वह आपस में ही लड़कर मर जाएगा। गांधारी के इस श्राप का प्रतिकार स्वयं भगवान कृष्ण भी नही कर पायेे थे। यादवी कुनबों में ऐसी चर्चाओं के तरह-तरह से अर्थ लगाये जा रहे है।
महाभारत युद्ध के समय गांधारी आैर धृतराष्ट्र ने पाण्डवों की मां कुन्ती को अपने खेमे में रखकर भी उसके पुत्रों को मारने के हर संभव प्रयास किये। यही नही कुन्ती के ज्येष्ठ पुत्र कर्ण को भी बरगला कर अपने पक्ष में कर लिया। अब महाभारत काल के कौरवी दुराचार को कलयुग में समाजवादी यदुबंशीय परिवार के विवाद को जोड़ कर उसके निहितार्थ निकाले जा रहे है। महाभारत काल में भी कृष्ण अकेले ही पाण्डवों के पक्ष में निहत्थे खड़े थे जबकि यदुबंशीय सेना सात्यकी के नेतृत्व में कौरवों के पक्ष में युद्ध कर रही थी। हां यह जरूरी था कि कृष्ण के बड़े भाई बलराम पूरे युद्धकाल तक अपने को अलग किये रहे । यदुबंशीय परिवार के इस विवाद में अखिलेश भी अकेले है। इसमें भी मामा शकुनि आैर मां गांधारी की राजनीतिक साजिश कृष्ण के ही खिलाफ है। यह विवाद कैसे समाप्त होगा, यह प्रदेश के पूरे यादव विरादरी की चिन्ता का सबसे बड़ा सबब है। इच्छा विरूद्ध दूसरे देश की जबरदस्ती लायी जाने वाली पत्नि(गांधारी ) कभी भी परिवार के लिए शुभ नही होती। मौर्य शासन काल में भी यवन कन्या ने राजबंश को ऐसे ही संकट में डाला था।
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13th October, 2016