देहरादून-- चुनाव खर्च को निर्धारित सीमा में रखने के लिए राजनीतिक दलों और तमाम प्रत्याशियों की रणनीति का असर विधानसभा चुनाव में साफ नजर आ रहा है। निर्वाचन आयोग ने राज्य के विधानसभा चुनाव में प्रत्याशियों की खर्च सीमा 28 लाख तय की है, लेकिन राजनीतिक दलों के लिए खर्च की कोई सीमा नहीं है और न ही इसका कोई ऑडिट किया जाना है। ऐसे में प्रत्याशियों ने ऐसे रास्ते तलाशे हैं कि उनका खर्च सीमा में दिखे और वे मनचाही राशि चुनाव पर खर्च कर सकें।
उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में अब एक सप्ताह से भी कम वक्त बचा है। ऐसे में तमाम दलों और प्रत्याशियों के पास प्रचार का वक्त भी सीमित रह गया है। वहीं, निर्धारित खर्च सीमा में रहते हुए चुनाव प्रचार करना भी एक चुनौती बनी हुई है। प्रदेश में जहां देखो चुनाव प्रचार का पहले सा हो-हल्ला नजर नहीं आ रहा है, लेकिन जनता के बीच खुद को चर्चा में रखने के तमाम मुद्दे राजनीतिक दलों के पास हैं।
दरअसल, इस बार प्रत्याशियों ने चुनाव खर्च सीमा को ध्यान में रखते हुए पहले ही रास्ते तलाश लिए थे। दलों के माध्यम से प्रचार पाने के इन हथकंडों के कारण ही प्रचार के चंद दिन शेष हैं और अभी तक प्रत्याशियों का खर्च 50 फीसद तक भी नहीं पहुंचा है। वहीं, निर्दलीय प्रत्याशियों के खर्च उनसे ज्यादा दिख रहे हैं।
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इस चुनाव में प्रचार के तरीकों पर गौर करें तो प्रत्याशियों के बजाय पार्टी के माध्यम से खर्च किए जाने की रणनीति ज्यादा नजर आती है। दरअसल, पार्टियों के लिए खर्च की कोई सीमा नहीं है। ऐसे में यह आसान और सुरक्षित रास्ता समझा जा रहा है। राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों की रणनीति पर गौर करें तो इसकी तस्दीक भी हो जाती है।
राजनीतिक दलों ने सोशल मीडिया पर पार्टी से सीधे संबंध नहीं रखने वाले लोगों के माध्यम से प्रचार कराए जाने, समाचार पत्रों, टीवी चैनलों और अन्य मीडिया माध्यमों पर सामूहिक प्रचार कराए जाने के विकल्पों को चुना। इसके साथ ही स्टार प्रचारकों और अन्य ऐसे विकल्पों को लागू किया गया जिससे प्रत्याशियों को प्रचार तो मिले, लेकिन इनका खर्च पार्टी खाते में जाए। यह रणनीति बीते विधानसभा चुनाव में भी देखने को मिली थी। तब दोनों प्रमुख दलों भाजपा और कांग्र्रेस ने केंद्रीय प्रचार व्यवस्था लागू की थी।
इस बार विधानसभा चुनाव में सोशल मीडिया को बड़ा हथियार माना जा रहा है। इसलिए छोटे-छोटे क्षेत्रों में विधान सभा क्षेत्र को बांटकर ऐसे युवाओं के माध्यम से लोगों को छूने की कोशिश है, जो अधिक से अधिक क्षेत्रीय लोगों के साथ सोशल मीडिया पर जुड़े हैं। इसके लिए तमाम दलों और प्रत्याशियों ने अपने-अपने स्तर पर टीमें मैदान में उतारी हैं। इन टीमों को मोटी राशि का भुगतान किया जाएगा। पार्टियां तमाम मुद्दों को इन्हीं माध्यमों से जनता के बीच ले जा रही हैं।
उधर, कांग्रेस की रणनीति देखें तो बेरोजगारी भत्ता कार्ड विवाद के जरिये उन्होंने सभी 70 विधान सभा क्षेत्रों में प्रचार का लाभ लिया और यह अभी भी जारी है। इसके साथ ही कांग्रेस ने वीडियो वार शुरू की है, हालांकि इसका जिम्मा लेने से कांग्रेस इन्कार करती रही है। वहीं, भाजपा ने स्टार प्रचारकों के माध्यम से तमाम सीटों पर पकड़ मजबूत करने की कोशिश की है। इसके साथ ही सोशल मीडिया, टीवी और समाचार पत्रों के केंद्रीय विज्ञापन हथियार बने हैं।
पेड फैन की फौज कर रही काम
सोशल मीडिया पर प्रचार के लिए पेड फैंस की टीमें उतारी गई हैं। इसके लिए भी दलों ने दो स्तर पर तैयारी की है। पहली कोशिश है कि किसी एक प्रत्याशी के बजाय ऐसे 'पेड फैन' पूरे राजनीतिक दल का प्रचार करें ताकि इनका खर्च दल के खाते में जुड़े, जिससे प्रत्याशी को कोई खतरा नहीं होगा। दूसरी कोशिश है कि ऐसे 'पेड फैन' छोटे-छोटे समूहों को व्हाट्सएप और फेसबुक मैसेंजर के माध्यम से मतदान के लिए प्रेरित करें और प्रचार करें।
इस माध्यम से किए गए प्रचार को पकड़ पाना निर्वाचन आयोग के लिए भी आसान नहीं होगा। अकेले राजधानी में ही फेसबुक और व्हाट्सएप प्रयोग करने वाले लोगों की संख्या 7.50 लाख के लगभग है और राज्य में करीब 25 लाख। ऐसे में निर्वाचन आयोग की मीडिया प्रमाणीकरण और निगरानी सेल शायद ही इन छिपे माध्यमों तक पहुंच पाए।
11th February, 2017