वामपंथ का अवसान-जमीनी हकीकत से दूर बौद्धिक बहस में ही सिमटा
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विजय शंकर पंकज।
लखनऊ। भारतीय राजनीति में वामपंथी और दक्षिणपंथी दलों का प्रवेश एक साथ हु्आ। वामपंथी स्वयं को गरीब-मजदूरों का हितैषी बताकर उनका रहनुमा बन रहे थे। दक्षिणपंथी राष्ट्रभाव की भावना को प्रेरित करते हुए समाज सेवा को अपना आदर्श बनाये हुए थे। आजादी आंदोलन में कांग्रेस की भूमिका के समक्ष इन दलों की उस समय जनता में पहचान तक ही नही थी। कांग्रेस का देश के हर वर्ग और हर क्षेत्र में पूरा दबदबा था जबकि वामपंथी और दक्षिणपंथी अपने कार्यक्षेत्र तक ही सीमित रहे। वामपंथी जहां पूंजीवादी राजनीति को लेकर कांग्रेस का विरोध करते तो दक्षिणपंथी तुष्टिकरण के मुद्दों को लेकर विरोध जता रहे थे। पूंजीवाद के नाम पर गरीबों और मजदूरों को उकसाने और हडताल कराकर काम वाधित करने की वामपंथी की राजनीति उन्ही के घातक बनी तो वोट की राजनीति के लिए कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण की रणनीति उनके लिए भष्भासुर साबित हु़ई और उससे खाली हुई जमीन में दक्षिणपंथी दलों ने राष्ट्रवाद का घूंट पिलाकर कब्जा कर लिया। हालात यह हुए कि कांग्रेस के तुष्टिकरण की रणनीति में वामपंथी भी उलझ का रह गये। वर्ग विशेष के तुष्टिकरण की अतिरेकता ने कांग्रेस और वामपंथियों को भी हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया। हालात यह है कि कांग्रेस केन्द्र में नेता विपक्ष का पद हासिल करने के भी लायक नही रही तो उत्तर प्रदेश में चौथे स्थान पर सिमट गयी है। वामपंथ तो उत्तर प्रदेश की राजनीति से डेढ दशक से निष्प्राण हो चुका है। इस दरम्यान दक्षिणपंथी जनसंघ से भारजीय जनता पार्टी तक चला कारवां आज भारी बहुमत के साथ केन्द्र और कई राज्यों में अपना पैर जमा चुका है।
लखनऊ। भारतीय राजनीति में वामपंथी और दक्षिणपंथी दलों का प्रवेश एक साथ हु्आ। वामपंथी स्वयं को गरीब-मजदूरों का हितैषी बताकर उनका रहनुमा बन रहे थे। दक्षिणपंथी राष्ट्रभाव की भावना को प्रेरित करते हुए समाज सेवा को अपना आदर्श बनाये हुए थे। आजादी आंदोलन में कांग्रेस की भूमिका के समक्ष इन दलों की उस समय जनता में पहचान तक ही नही थी। कांग्रेस का देश के हर वर्ग और हर क्षेत्र में पूरा दबदबा था जबकि वामपंथी और दक्षिणपंथी अपने कार्यक्षेत्र तक ही सीमित रहे। वामपंथी जहां पूंजीवादी राजनीति को लेकर कांग्रेस का विरोध करते तो दक्षिणपंथी तुष्टिकरण के मुद्दों को लेकर विरोध जता रहे थे। पूंजीवाद के नाम पर गरीबों और मजदूरों को उकसाने और हडताल कराकर काम वाधित करने की वामपंथी की राजनीति उन्ही के घातक बनी तो वोट की राजनीति के लिए कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण की रणनीति उनके लिए भष्भासुर साबित हु़ई और उससे खाली हुई जमीन में दक्षिणपंथी दलों ने राष्ट्रवाद का घूंट पिलाकर कब्जा कर लिया। हालात यह हुए कि कांग्रेस के तुष्टिकरण की रणनीति में वामपंथी भी उलझ का रह गये। वर्ग विशेष के तुष्टिकरण की अतिरेकता ने कांग्रेस और वामपंथियों को भी हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया। हालात यह है कि कांग्रेस केन्द्र में नेता विपक्ष का पद हासिल करने के भी लायक नही रही तो उत्तर प्रदेश में चौथे स्थान पर सिमट गयी है। वामपंथ तो उत्तर प्रदेश की राजनीति से डेढ दशक से निष्प्राण हो चुका है। इस दरम्यान दक्षिणपंथी जनसंघ से भारजीय जनता पार्टी तक चला कारवां आज भारी बहुमत के साथ केन्द्र और कई राज्यों में अपना पैर जमा चुका है।
किसान-मजदूरों के नाम पर राजनीति करने वाले वामपंथी दलों के सूरत का उत्तर प्रदेश की राजनीति से अवसान हो गया है। अब तो देश भर में जो हालाल है, उससे साफ है कि भारत की राजनीति में वामपंथ राजनीतिक इतिहास का विषय बनकर ही रह जाएगा। देश की राजनीति में अब अपने सबसे बड़े गढ़ पश्चिम बंगाल में ही माइनस में चली गयी है। वामपंथ के लिए नामलेवा अब त्रिपुरा और केरल ही रह गये है। प्रदेश की राजनीति में 1960 से 1970 के दशक में पूर्वी यूपी से पश्चिम तक के पिछड़ों इलाकों में अपनी पैठ रखने वाले और गरीब किसानों एवं मजदूरों को लेकर लाल झंडे उठाने को गर्व महसूस करने वाले वामपंथी नेता अब राजनीतिक बहसों और साम्प्रदायिकता के नाम पर अराजक तत्वों को संरक्षण देने की विज्ञप्ति तक ही सीमित होकर रह गया है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में वामपंथियों की राजनीतिक स्वरूप पर नजर डालें तो कांग्रेस की पूंजीवादी सोच के खिलाफ नारा बुलन्द करने में लाल झंडे का परचम ही लहराता था। उस समय जनसंघ और हिन्दूवादी संगठन आम जनता के बीच अपनी पैठ नही बना पाये थे जबकि वामपंथी गरीबों और मजदूरों की आवाज बने हुए थे। इन हालातों के बाद भी अति पिछड़ों एवं गरीब इलाकों में ही वामपंथी अपनी पैठ बनाने में सफल रहते। शहरी मजदूरों को अपने पक्ष में करने और जीत करने में वामपंथी उत्तर प्रदेश की राजनीति में सफल नही हुए।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में देश में हुए दूसरे आम चुनाव में वामपंथियों ने विधानसभा में प्रवेश किया। पहले चुनाव में वामपंथी चुनावी तैयारियों में अपने को तैयार नही कर पाये थे। वर्ष 1957 के विधानसभा चुनाव में मोहम्मदाबाद (गाजीपुर) से सरयू पाण्डेय, गाजीपुर से पब्बर राम, कोलसला (वाराणसी) से ऊदल सहित ९ सदस्यों ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की आधारशिला रखी तो घोसी (तत्कालीन आजमगढ़) से आरएसपी से झारखंडे राय ने भी अपनी बुनियाद रखी। ये जितने वाले भी विधायक अत्यन्त पिछड़े क्षेत्रों का ही प्रतिनिधित्व करते रहे। दो दशक तक इन वामपंथी नेताओं का अपने क्षेत्रों में बर्चस्व रहा। सरयू पाण्डेय तथा झारखंडे राय ने लोकसभा का भी प्रतिनिधित्व किया।
देश के पहले चुनाव में श्री अमृत डांगे के नेतृत्व में वामपंथी दलों ने लोकसभा की १७ सीटें जीत कर ३.२९ प्रतिशत मत हासिल किया था। वामपंथी दल सर्वाधिक १९८० में ५० और २००४ में ५३ सीटें जीती लेकिन २०१४ के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर ने वामपंथ का सफाया कर दिया और माकपा को केवल दो सीटें मिली जबकि उसके सहयोगी भाकपा एवं अन्य दलों का खाता भी नही खुला। उत्तर प्रदेश की राजनीति में तो वामपंथ २००२ के विधानसभा चुनाव के बाद हाशिये से ही बाहर हो गया है। अन्तिम बार २००२ में माकपा से नजीबाबाद से रामस्वरूप और मेजा से रामकृपाल जीते थे। भाकपा का एक प्रत्याशी १९९६ के चुनाव में जीता था, उसके बाद खाता ही नही खुला। उत्तर प्रदेश की राजनीति में वामपंथ के सफाये का बहुत बड़ा कारण समाजवादी पार्टी एवं बहुजन समाज पार्टी रही। जैसे-जैसे इन दलों का बर्चस्व बढ़ा वामपंथ उत्तर प्रदेश की राजनीति से सिमटता चला गया। समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने सत्ता समीकरण के लिए भाकपा के कई प्रमुख नेताओं मित्रसेन यादव तथा अफजाल अंसारी को अपने साथ मिलाकर पार्टी की रीढ़ तोड़ दी तो बसपा ने दलित वोट बैंक को सत्ता का स्वाद चखाकर वामपंथ की जमीनी हकीकत को ही समाप्त कर दिया। हालात यह हुआ कि बढ़ती उम्र और बदलते राजनीतिक परिवेश के कारण भाकपा के पुरोधा उदल 1996 के चुनाव में भाजपा के युवा नेता अजय राय से कोलसला से चुनाव हार गये। गाजीपुर से सरयू पाण्डेय तथा आजमगढ़ से झारखंडे राय के उत्तराधिकारी उनकी विरासत बचाने में असफल रहे। सरयू पाण्डेय तथा झारखंडे राय की राजनीति का आधार उस समय दलित बस्तियां होती थी। दोनों ही नेता दलित बस्तियों में ही डेरा डालते और उन्ही के साथ भोजन कर उन्हें अपने अधिकार के लिए प्रेरित करते। दोनों ही सवर्ण परिवार से होने के कारण दलित बस्तियों में प्रिय बन गये थे। उस समय की सामाजिक व्यवस्था के अनुसार सवर्णो का दलित बस्तियों में अपनापन करना एक क्रान्तिकारी कदम माना जाता था। नयी पीढ़ी अब उस स्थिति का आंकलन नही कर सकती है। दलित समुदाय का मनोबल बढ़ाने का बसपा जो भी दावा करे परन्तु तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में सवर्ण वामपंथी दलों के योगदान को भुलाया नी जा सकता है। दलित बस्ती पर जब सरयू पाण्डेय का भाषण होता और वह गांव के दबंगों के खिलाफ ललकारते और कहते कि "जब तबला बाजे धीन-धीन तक एक-एक पर तीन-तीन"। सरयू पाण्डेय का यह नारा दलित समाज के लोगों में क्रान्ति और शोषण के खिलाफ आवाज बुलन्द करने का आवेश भर देता।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में वामपंथियों का स्वर्णिम काल १९६९ में रहा जब उन्हें ८० सीटें मिली उसके बाद पार्टी का पराभव होता गया। बसपा के १९८९ में प्रदेश की राजनीति में पर्दापण के बाद बामपंथ और सिकुडïता गया। वर्ष १९९३ के चुनाव में जब बसपा को ६७ सीटें मिली तो भाकपा को ३ और माकपा को ४ सीटें मिली। १९९६ में भाकपा १ और माकपा ४ पर आ गये। भाकपा के इस पराभव का कारण उसके दो धुरन्धर नेता मित्रसेन यादव तथा अफजाल अंसारी को मुलायम सिंह यादव ने सपा में मिला लिया। इसके बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में वामपंथ निष्प्राण सा हो गया।
इस प्रकार कांग्रेस विरोध के नाम पर शुरू हुए राजनीति के दो धूर वामपंथी जहां देश की राजनीति में हाशिये पर चले गये है तो दक्षिणपंथी भाजपा अपने सर्वोच्च उत्कर्ष पर है। यही कारण है कि कभी देश की राजनीति में कांग्रेस विरोधी गठबंधन बनाने की कोशिश होती थी, वह अब भाजपा के इस प्रादुर्भाव के बाद अब भाजपा विरोधी गठबंधन की तैयारियां चल रही है।
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स्लाइडशो दोबारा देखेंदेश के पहले चुनाव में श्री अमृत डांगे के नेतृत्व में वामपंथी दलों ने लोकसभा की १७ सीटें जीत कर ३.२९ प्रतिशत मत हासिल किया था। वामपंथी दल सर्वाधिक १९८० में ५० और २००४ में ५३ सीटें जीती लेकिन २०१४ के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर ने वामपंथ का सफाया कर दिया और माकपा को केवल दो सीटें मिली जबकि उसके सहयोगी भाकपा एवं अन्य दलों का खाता भी नही खुला। उत्तर प्रदेश की राजनीति में तो वामपंथ २००२ के विधानसभा चुनाव के बाद हाशिये से ही बाहर हो गया है। अन्तिम बार २००२ में माकपा से नजीबाबाद से रामस्वरूप और मेजा से रामकृपाल जीते थे। भाकपा का एक प्रत्याशी १९९६ के चुनाव में जीता था, उसके बाद खाता ही नही खुला। उत्तर प्रदेश की राजनीति में वामपंथ के सफाये का बहुत बड़ा कारण समाजवादी पार्टी एवं बहुजन समाज पार्टी रही। जैसे-जैसे इन दलों का बर्चस्व बढ़ा वामपंथ उत्तर प्रदेश की राजनीति से सिमटता चला गया। समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने सत्ता समीकरण के लिए भाकपा के कई प्रमुख नेताओं मित्रसेन यादव तथा अफजाल अंसारी को अपने साथ मिलाकर पार्टी की रीढ़ तोड़ दी तो बसपा ने दलित वोट बैंक को सत्ता का स्वाद चखाकर वामपंथ की जमीनी हकीकत को ही समाप्त कर दिया। हालात यह हुआ कि बढ़ती उम्र और बदलते राजनीतिक परिवेश के कारण भाकपा के पुरोधा उदल 1996 के चुनाव में भाजपा के युवा नेता अजय राय से कोलसला से चुनाव हार गये। गाजीपुर से सरयू पाण्डेय तथा आजमगढ़ से झारखंडे राय के उत्तराधिकारी उनकी विरासत बचाने में असफल रहे। सरयू पाण्डेय तथा झारखंडे राय की राजनीति का आधार उस समय दलित बस्तियां होती थी। दोनों ही नेता दलित बस्तियों में ही डेरा डालते और उन्ही के साथ भोजन कर उन्हें अपने अधिकार के लिए प्रेरित करते। दोनों ही सवर्ण परिवार से होने के कारण दलित बस्तियों में प्रिय बन गये थे। उस समय की सामाजिक व्यवस्था के अनुसार सवर्णो का दलित बस्तियों में अपनापन करना एक क्रान्तिकारी कदम माना जाता था। नयी पीढ़ी अब उस स्थिति का आंकलन नही कर सकती है। दलित समुदाय का मनोबल बढ़ाने का बसपा जो भी दावा करे परन्तु तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में सवर्ण वामपंथी दलों के योगदान को भुलाया नी जा सकता है। दलित बस्ती पर जब सरयू पाण्डेय का भाषण होता और वह गांव के दबंगों के खिलाफ ललकारते और कहते कि "जब तबला बाजे धीन-धीन तक एक-एक पर तीन-तीन"। सरयू पाण्डेय का यह नारा दलित समाज के लोगों में क्रान्ति और शोषण के खिलाफ आवाज बुलन्द करने का आवेश भर देता।