चुनावी स्टन्ट - राम मंदिर समझौते का नाट्य
3 of
6
विजय शंकर पंकज, लखनऊ। भारतीय जनता पार्टी के हाथ से विकास की कड़ी छूटने के बाद अब राम का ही सहारा रह गया है। पिछले कुछ महीनों से राममंदिर बनाने के लिए कई समझौतौ के ठेकेदार अचानक सामने आ रहे है। इसमें शियाओं के एक कथित रहनुमा जो अभी पिछली सरकार में कट्टर आजम खां के समर्थक रहे अचानन राममय हो गये। शिया वसीम रिजवी की राम मंदिर के प्रति रूझान को देखते हुए कट्टर राम समर्थक हिन्दू भी पीछे रह गये है। इस कड़ी में सुब्रण्यहम स्वामी से लेकर कई नाम आये और हाल ही में धर्मगुरु श्री श्री रविशंकर भी नये सिरे से दाखिल हो गये है। सुन्नी वक्फ बोर्ड इसे अपनी संपत्ति बताकर किसी भी समझौते को तैयार नही है। इन घटनाक्रमों से जनता में यह राय बन रही है कि राम मंदिर निर्माण के संबंध में इन सारे समझौतों के पीछे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की राय है।
राममंदिर के प्रति केन्द्र एवं राज्य सरकार की मंशा इस बात से भी साबित हो जाती है कि मंदिर से इतर सरयू नदी में 100 फिट उंची राम की मूर्ति स्थापना की घोषणा कर दी गयी। इसके लिए 133 करोड़ रूपये की धनराशि दिये जाने की भी घोषणा हुई। इस घोषणा के बाद भी अभी इस दिशा में दोनों सरकारें एक कदम भी आगे नही बढ़ पायी है। माना जा रहा है कि इसी को आधार बनाकर भाजपा 2019 के लोकसभा चुनाव में अपना भागीरथ दांव खेलेगी। सरयू में राम की मूर्ति लगाने का काम भी तभी शुरू होगा ताकि भाजपा नेता यह कह सके कि राम के प्रति उनकी क्या आस्था है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दीपावली पर अयोध्या में रिकार्ड ज्योति पर्व मनाकर जनता का ध्यान राम मंदिर और अयोध्या की तरफ खींचने का प्रयास किया। इसी कड़ी में अयोध्या से लेकर चित्रकूट तक पर्यटक स्थल के रूप में विकसित किये जाने की भी घोषणा की गयी।
शिवभक्त राहुल --- चुनावी माहौल में अब हर नेता धार्मिक आडम्बर का चोला पहनने को विवश होने लगा है। इसके पीछे राम के सहारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बढ़ती सफलता से अब विपक्षी भी उन्ही की शरण में जाने को विवश हो रहे है। नये हिन्दू धार्मिक के रूप में उभार कांग्रेसी उत्तराधिकारी राहुल गांधी का है। गुजरात विधानसभा चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोकने और नये सहयोगी बनाने में व्यस्त राहुल को जब इस रणनीति से भी जीत का सपना पूरा होते नही दिखा तो उनके रणनीतिकारों ने उन्हे शिवभक्त बनने को विवश कर दिया। अच्छा हुआ कि राहुल ने अपने को राम भक्त न कहकर शिवभक्त कह दिया। अन्यथा राम का नाम लेते ही उनसे मुस्लिम नाराज हो जाता है परन्तु गुजराज में मुस्लिम को कांग्रेस के साथ जाने के अलावा अन्य कोई विकल्प भी नही है। इसी से बचने के लिए राहुल के रणनीतिकारों ने उन्हे शिव भक्त बना दिया। राहुल के शिव भक्त बनने के बाद अब चर्चा यह शुरू हो गयी है कि अयोध्या के राम मंदिर से सत्ता का स्वाद चखने वाली भाजपा का जवाब देने के लिए क्या अब कांग्रेस काशी में शिव मंदिर का उद्धार करायेगी।
संघ के एजेन्डे में उत्तर प्रदेश के तीन मंदिरों अयोध्या (राम), काशी (शिव) तथा मथुरा (कृष्ण) के मंदिरों को मस्जिदों से मुक्त कराना है। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने राहुल को शिव भक्त बनाकर अचानक ही उन्हे संघ के एजेन्डे में लपेट दिया है। संघ के एजेन्डे तले पिछली सपा सरकार के मुखिया अखिलेश यादव भी मथुरा के विकास की कई योजनाएं तथा मंदिर निर्माण की बात लेकर पहुंचे थे। अब अखिलेश अपने गांव सैफई में ही भगवान कृष्ण की भव्य मूर्ति स्थापित कराने जा रहे है। इससे जाहिर है कि सभी विपक्षी दल एक-एक कर संघ के एजेन्डे के शिकार होते जा रहे है। राजनीतिक दलों की इस धार्मिक लड़ाई में अलग-थलग पड़ी मायावती भी अपने तरकश से तीर निकालने में नही चुकी परन्तु उनका निशाना चूक गया और उनका दांव फुस्स हो गया। मऊ की रैली में मायावती ने हिन्दू धर्म में ज्यादती का आरोप लगाते हुए कहा कि इसे रोका नही गया तो वह बौद्ध हो जाएगी। मायावती की धमकी कुछ असर करती, वह खुद ही नही समझ पायी। मायावती की धमकी से ऐसा लगा जैसे हिन्दू धर्म उनही के बल से रुका है उनके छोडते ही धराशायी हो जाएगा। 2014 के लोकसभा चुनाव में जब मोदी ने विकास का नारा दिया तो सभी अपने को विकास पुरूष कहने लगे। मोदी का विकास असफल होते ही भाजपा ने धर्म का एजेन्डा लागू किया और अब राज्यों के चुनाव में कांग्रेस फंस कर रह गयी। पहले गुजरात के चुनाव में कांग्रेस ने सभी वर्गो को जोडने की रणनीति बनायी थी, वह कारगर थी परन्तु सफलता का विश्वास न होने के कारण रणनीतिकारों ने धर्म की भी आड़ ले ली। कांग्रेस नेतृत्व को अपने रणनीतिकारों में संघ के समर्थकों को खोजना होगा जो उन्हें ऐन मौके पर उन्ही के पाले में डाल देता है।
योगी का धर्मतंत्र --- उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव में विपक्ष से भाजपा को वाक ओवर मिलने के बाद भी घबड़ाये मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने चुनावी प्रचार की शुरूआत अयोध्या से कर रहे है। यह योगी की आस्था कही जा सकती है परन्तु क्या प्रशासन आस्था से चलेगा और जनकल्याण तथा विकास की सारी योजनाएं राम के ही भरोसे छोड़ दी जायेगी। सरकारी आकडों के ही अनुसार जब देश में आम वस्तुओं की महंगाई आसमान छू रही है, तो प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री चुप्पी साधे हुए है। किसी निकाय चुनाव में मुख्यमंत्री इतनी जनसभाए करे, यह अभी तक नही हुआ। भाजपा नेतृत्व ने योगी के ऐसे मुकाम पर ला खड़ा किया है कि जीत तो मोदी की और हार तो योगी की। यही वजह है कि योगी निकाय चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा का विषय बनाकर किसी भी तरह से जीत हासिल करने को प्रतिबद्ध है। योगी की बड़ी जनसभाओं में अयोध्या, गोरखपुर, वाराणसी, इलाहाबाद, मथुरा सबसे प्राथमिकता में है। हालांकि यहां के प्रत्याशियों के चयन में योगी की कोई राय नही ली गयी और इसे संगठन का विषय बना दिया गया। प्रत्याशी चयन में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष से ज्यादा महामंत्री संगठन सुनील बंसल की ही चली। भाजपा में अप्रत्यक्ष रूप से सुनील बंसल ही कमान संभाले हुए है।
राम मंदिर आस्था या संपत्ति -- अयोध्या में राम मंदिर हिन्दू सम्प्रदाय के लिए आस्था का प्रतीक है। हिन्दू समाज का मानना है कि राम मंदिर अयोध्या में नही बनेगा तो अन्य कहा दावा किया जा सकता है। धार्मिक मुद्दों पर आस्था को सर्वोच्च प्राथमिकता होती है परन्तु यह लड़ाई आस्था पर केन्द्रित न होकर संपत्ति विवाद पर आकर अटक गयी है। सुन्नी वक्फ बोर्ड राम मंदिर परिसर की भूमि को अपनी सपत्ति बताकर हक जताता है। कोई भी हमलावर जिस भूमि पर कब्जा करता है, उसका हो जाता है परन्तु बाद जब दूसरी ताकत हावी होती है, वह संपत्ति उसकी हो जाती है। ऐसे में यह भी देखना होगा कि सुन्नी वक्फ बोर्ड या मुस्लिम समुदाय अयोध्या की भूमि अपने साथ कही से लायी नही थी बल्कि उस पर कब्जा कर मस्जिद का निर्माण कराया जिसे बाबरी मस्जिद नाम दिया गया। साफ है कि जब अब मुगल शासन काल समाप्त हुए 400 वर्ष से ज्यादा हो गये तो वर्तमान लोकतांत्रिक सरकार को समाज हित में निर्र्णय लेना का अधिकार होना चाहिए। ऐसे में बहुसंख्यक हिन्दू समाज की भावनाओं को देखते हुए अयोध्या में राममंदिर निर्माण के लिए रास्ता साफ कर देना चाहिए। कुछ मुठ्ठी भी सुन्नी मुसलमानों की जिद के चलते जमीन के इस टुकडे पर उन्हे विवाद खड़ा कर नफरत फैलाने की बात नही करनी चाहिए। यह तो उसी तरह से है जैसे कोई यहुदी, ईसाई या हिन्दू; मुस्लिम धर्म क्षेत्रों पर अपना कब्जा जमाये। ऐसे में राम मंदिर को लेकर समझौते के पहल की प्रशंसा की जानी चाहिए परन्तु इसे राजनीतिक मुद्दा न बनाया जाय। समझौते के लिए इसके मूल पक्षकारों को भी महत्व दिया जाना चाहिए और नये पक्षकार बनने से बचने का प्रयास होना चाहिए।
आपका स्लाइडशो खत्म हो गया है
स्लाइडशो दोबारा देखेंशिवभक्त राहुल --- चुनावी माहौल में अब हर नेता धार्मिक आडम्बर का चोला पहनने को विवश होने लगा है। इसके पीछे राम के सहारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बढ़ती सफलता से अब विपक्षी भी उन्ही की शरण में जाने को विवश हो रहे है। नये हिन्दू धार्मिक के रूप में उभार कांग्रेसी उत्तराधिकारी राहुल गांधी का है। गुजरात विधानसभा चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोकने और नये सहयोगी बनाने में व्यस्त राहुल को जब इस रणनीति से भी जीत का सपना पूरा होते नही दिखा तो उनके रणनीतिकारों ने उन्हे शिवभक्त बनने को विवश कर दिया। अच्छा हुआ कि राहुल ने अपने को राम भक्त न कहकर शिवभक्त कह दिया। अन्यथा राम का नाम लेते ही उनसे मुस्लिम नाराज हो जाता है परन्तु गुजराज में मुस्लिम को कांग्रेस के साथ जाने के अलावा अन्य कोई विकल्प भी नही है। इसी से बचने के लिए राहुल के रणनीतिकारों ने उन्हे शिव भक्त बना दिया। राहुल के शिव भक्त बनने के बाद अब चर्चा यह शुरू हो गयी है कि अयोध्या के राम मंदिर से सत्ता का स्वाद चखने वाली भाजपा का जवाब देने के लिए क्या अब कांग्रेस काशी में शिव मंदिर का उद्धार करायेगी।