निकाय चुनाव- विपक्ष के लिए चेतावनी, मोदी के चक्रव्यूह एजेन्डे में फंसा विपक्ष
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विजय शंकर पंकज,लखनऊ। पहले लोकसभा, फिर विधानसभा और अब निकाय चुनाव में करारी शिकस्त खाने के बाद भी जब विपक्ष मोदी के जादू और भाजपा के संगठनात्मक ढा़चे को नही समझ पा रहा है तो देश की सियासत में अलग-थलग पड़ने के अलावा उसके पास कोई विकल्प नही होता है। राजनीतिक समझ यही कहती है कि दुर्दिन में दुश्मन को भी गले लगाने से नही चुकना चाहिए। डूबते को तिनके का सहारा होता है। उत्तर प्रदेश की सियासत में अब समय आ गया है कि सपा,बसपा और कांग्रेस अपनी पुरानी दलिलों को छोड़ एकजुट होकर चुनाव मैदान में भाजपा का विकल्प देने का प्रयास करे। तमाम आलोचनाओं और सियासी अनुमानों के बाद भी इन चुनावों में भाजपा को मिली भारी जीत ने साबित कर दिया है कि फिलहाल राज्य में उसका कोई विकल्प नही है। भाजपा ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातीय समीकरण इस प्रकार साधा है कि अन्य दलों को उसमें सेंध लगाना संभव नही हो पा रहा है। ऐसे में इन तीनों प्रमुख दलों के लिए यही एकमात्र सहारा है कि आपसी मतभेद और राजनीतिक दंभ से दूर होकर एकजुट होकर भाजपाई सेना का मुकाबला करे। साफ है कि चुनावी गणित ने भी साबित कर दिया है कि यह दल एकजुट होकर चुनाव लड़े तो भाजपा को किनारे लगाया जा सकता है। आगे स्लाइड कर पढ़ें..
निकाय चुनाव में 16 महानगरों में भाजपा की 14 पर जीत उतनी महत्वपूर्ण नही है जितनी की नगरपालिका परिषद एवं नगर पंचायतों में बढ़ा बर्चस्व है। महानगरों में भाजपा का पहले से ही बर्चस्व रहा है परन्तु नगर पालिका परिषदों एवं नगर पंचायतों में वह हमेशा ही गच्चा खा जाती थी। भाजपा को इन सीटों पर और भी सफलता मिलती यदि जिला स्तर पर प्रत्याशियों का सही चयन होता। जेबी प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारने, कार्यकर्ताओं की उपेक्षा तथा पार्टी की अन्दरूनी खींचतान ने भाजपा को बड़ी जीत दिलाने में रोड़ा अटका दिया। भाजपा को नगर निगम की मेरठ एवं अलीगढ़ में हार के कारणों को भी खोजना पड़ेगा। मेरठ एवं अलीगढ़ में पिछले एक दशक से जिला इकाइयों, सांसद एवं विधायकों में खींचतान चलती आ रही है। इसी का परिणाम रहा कि भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी मोदी लहर में भी मेरठ शहर से सीट गंवा बैठे। इसी प्रकार अलीगढ़ में भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के पार्टी छोड़ने और फिर वापसी के क्रम में जिला में जो माहौल बिगड़ा, वह अभी तक सुधर नही पाया है।
मेरठ एवं अलीगढ़ के महापौर के चुनाव में बसपा प्रत्याशियों की जीत भाजपा के लिए अन्दरूनी चेतावनी भी है। पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा का मुस्लिम कार्ड पूरी तरह फ्लाप साबित हुआ था, अब 8 माह बाद ही पश्चिम में मरणासन्न हाथी को खड़ा कर गया। इसमें बसपा नेतृत्व का कोई खास योगदान नही रहा। बसपा मुखिया टिकट बांटने के बाद अपने प्रत्याशियों का हाल भी जानने की कोशिश नही की परन्तु यहां पर जनता ने भाजपा को उसका सही आइना दिखा दिया। पश्चिम में मेरठ - अलीगढ़ के अलावा सहारनपुर, आगरा, झांसी में बसपा ने कड़ी टक्कर दी। इससे साफ है कि मुस्लिम मतदाताओं ने सपा और कांग्रेस से ज्यादा बसपा पर भरोसा जताया। प्रदेश की राजनीति में दलित-मुस्लिम गठबंधन बड़ा गठजोड़ है। इसके साथ दूसरे पिछड़े वर्ग के कुछ प्रतिशत वर्ग जुड़ जाया तो बसपा को बड़े पैमाने पर राजनीतिक लाभ मिलेगा। इसी रणनीति के तहत बसपा संस्थापक कांशीराम ने दलितों के साथ ही अति पिछड़ों को अपने अभियान का मुख्य कर्णधार बनाया और यही कारण था कि मुसलमानों के शामिल होने के बाद बसपा को एक बार पूर्ण बहुमत और कई बार सरकार का हिस्सा बनने का मौका मिला। 2007 के विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद मायावती के अड़ियल रवैये, अन्य वर्गो की उपेक्षा और धन उगाही के आरोपों ने पार्टी को केवल दलित वर्ग तक ही सीमित करके रख दिया। इस बीच बड़े पैमाने पर अतिपिछड़े नेताओं के पार्टी छोड़ने को बसपा नेतृत्व ने गंभीरता से नही लिया। अब भी बसपा नेतृत्व वही गलती कर रहा है। पिछले दिनों मायावती की मध्य प्रदेश, कर्नाटक एवं राजस्थान में हुई रैलियों में दलितों के आरक्षण को ही मुख्य मुद्दा बनाया गया।
बसपा की तरह ही सपा ने भी 2012 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनने पर पिछड़े वर्ग के यादव विरादरी तक ही अपने को सीमित करके रख दिया। यही कारण है कि अन्य विरादरी सपा से अलग हो गयी। वर्षो से कांग्रेस संगठन निष्प्रभावी बना हुआ है और नेता दिल्ली की चाभी से काम कर रहे है। कांग्रेस नेतृत्व के पास संगठन को मजबूत करने की न तो कोई चिन्ता है और नही जनता के बीच जाने की कोई कार्य योजना। ऐसे में कांग्रेस सरकार की विफलता के माध्यम से ही सत्ता में आने का सपना संजोये हुए है। प्रदेश की राजनीति में बसपा, सपा एवं कांग्रेस के लगातार मुस्लिम मतों के ध्रुवीकरण एवं तुष्टिकरण की रणनीति ने जनता के मन में एक घृणित भाव पैदा कर दिया और इसका फायदा भाजपा को मिला। लोकसभा एवं विधानसभा के चुना मे इन दलों के मुस्लिम वोट बैक की रणनीति का ही परिणाम रहा कि अन्य वर्ग भाजपा के साथ एकजुट हो गया। अब भी यह दल इस मसले को सुलझा नही पा रहे है। कांग्रेस ने गुजराज के चुनाव में भाजपा की इस रणनीति को अपनाया।
पहली बार कांग्रेस नेता राहुल गांधी गुजरात के मंदिरों में दर्शन के अलावा हिन्दू मतदाताओं को आकर्षित करने का प्रयास कर रहे है। राहुल का यह फूहड़ तरीका जनता में हास्यास्पद बन रहा है। कांग्रेस मानकर चल रही है कि भाजपा के खिलाफ मुस्लिम मतदाताओं को उसके पाले में आने के अलावा अन्य कोई विकल्प नही है। कांग्रेस और मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले नेता यह भूल रहे है कि मोदी सरकार में तीन तलाक में मुस्लिम महिलाओं की सोच में नयी क्रान्ति ला दी है। सरकारी शह मिलने के बाद मुस्लिम महिलाएं पहली बार अपने समाज के पुरूष प्रधान समाज के खिलाफ बोलना शु डिग्री किया है। पीड़ित मुस्लिम महिलाओं में यह भाव बढ़ता जा रहा है कि भाजपा तथा मोदी सरकार रहने पर उन्हें तलाक के बाद नारकीय जीवन से मुक्ति मिलेगी। ऐसे में मुस्लिम समाज की बढ़ी संख्या में महिलाए भाजपा की तरफ रूझान रख रही है। लखनऊ महानगर के चुनाव में भाजपा के मुस्लिम प्रत्याशी जीते है। भाजपा ने लगभग 100 मुस्लिम प्रत्याशी निकाय चुनाव में उतारे थे और उनके परिणामों की समीक्षा की जा रही है। भाजपा की मुस्लिम महिला प्रत्याशियों को लेकर पार्टी में उत्साह है।
विपक्षी दल भाजपा और मोदी के चुनावी जाल में फंसते जा रहे है। वर्ष 2014 में भाजपा ने भ्रष्टाचार और विकास को मुद्दा बनाया। इसके पूर्व 2012 से ही भाजपा हिन्दू समाज के अन्य दलित एवं पिछड़े वर्ग को जोड़ने का अभियान चलाया जो अभी तक राजनीतिक रूप से अपने को उपेक्षित महसूस कर रहे थे। यही कारण है कि अति दलित एवं अति पिछड़े वर्ग के दूसरे दलों के नेता भारी संख्या में भाजपा में शामिल हुए। इस सामाजिक ताने-बाने का भाजपा को लाभ मिला और 2014 के लोकसभा तथा 2017 के यूपी विधानसभा के चुनाव ने यह साबित कर दिया कि मुस्लिम वोटों के बगैर भी भारी बहुमत की सरकार बन सकती है। इसके बाद मोदी सरकार का मुस्लिम के महिला वर्ग को अपने पक्ष में मोटिवेट करने का तरीका भी कारगर हो रहा है। मोदी की इस काट का विपक्ष के पास मात्र यही विकल्प रह गया है कि वह एकजुट होकर ही अपना अस्तित्व बचा सकते है अन्यथा बिखरे दाने साबित होगे।
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स्लाइडशो दोबारा देखेंबसपा की तरह ही सपा ने भी 2012 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनने पर पिछड़े वर्ग के यादव विरादरी तक ही अपने को सीमित करके रख दिया। यही कारण है कि अन्य विरादरी सपा से अलग हो गयी। वर्षो से कांग्रेस संगठन निष्प्रभावी बना हुआ है और नेता दिल्ली की चाभी से काम कर रहे है। कांग्रेस नेतृत्व के पास संगठन को मजबूत करने की न तो कोई चिन्ता है और नही जनता के बीच जाने की कोई कार्य योजना। ऐसे में कांग्रेस सरकार की विफलता के माध्यम से ही सत्ता में आने का सपना संजोये हुए है। प्रदेश की राजनीति में बसपा, सपा एवं कांग्रेस के लगातार मुस्लिम मतों के ध्रुवीकरण एवं तुष्टिकरण की रणनीति ने जनता के मन में एक घृणित भाव पैदा कर दिया और इसका फायदा भाजपा को मिला। लोकसभा एवं विधानसभा के चुना मे इन दलों के मुस्लिम वोट बैक की रणनीति का ही परिणाम रहा कि अन्य वर्ग भाजपा के साथ एकजुट हो गया। अब भी यह दल इस मसले को सुलझा नही पा रहे है। कांग्रेस ने गुजराज के चुनाव में भाजपा की इस रणनीति को अपनाया।