विजय शंकर पंकज, लखनऊ। अभी कुछ दिन पहले ही की बात है कि राहुल को लेकर मीडिया और जनसंवादों में तरह-तरह की चुटकिया ली जाती थी। "" पप्पू-गलत संदर्भ पेश करने वाला, बातों की समझ न रखने वाला, गंभीर समझ नही आदि-आदि। राहुल के खिलाफ इस माहौल का बहुत कुछ उनके अपने सहयोगी भी ऐसी हरकते कर देते जिससे राहुल पर ही ठीकरा फूटता था। जब तक राहुल को बात समझ आती, तब तक विपक्ष विशेष कर भाजपा के लोग माहौल को बदनुमा कर हुए होते थे। ऐसे माहौल में जब राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पार्टी की कमान और अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाने का निर्णय लिया तो लोगों को बात कुछ असमय और सतही लगी थी। इस दरम्यान गुजरात विधानसभा का चुनाव घोषित होने के बाद राहुल ने जिस प्रकार राजनीतिक परिपक्तवता दिखायी और तमाम गठबंधन के साथ ही जो चुनावी माहौल पैदा किया, उससे नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह जैसे राजनीतिक तोड़मोड़ के दिग्गजों को भी नानी याद आ गयी। आज हालात यह है कि मोदी-शाह की जोड़ी की विकास वादी राजनीति का नारा धूल फांक रहा है कि और चुनावी जमीन बचाने के लिए गुजराती अस्मिता का राड़पा रोया जा रहा है। प्रधानमंत्री पद पर बैठे किसी व्यक्ति का ऐसा चुनावी प्रचार और भाषायी गरिमा देश के शिक्षित वर्ग की भावनाओं को झकझोर देती है जो अपने को लोकतंत्र का हिस्सा मानते है। ऐसे में अकेले राहुल का गुजराती समर में इन राजनीतिक योद्धाओं को ललकारना महाभारत के अभिमन्यु की तरह है। गुजरात विधानसभा चुनाव का परिणाम जो भी है परन्तु राहुल अकेले ही भाजपा के मठाधीशो पर भारी पड़े है। यह चुनाव देश की आगामी राजनीति की दिशा बदल देगा और मुगातले में जी रहे भाजपा के कर्णधारों को अपनी रणनीति बदलने को मजबूर होना पड़ेगा।
सोनिया की राजनीतिक दूरदर्शिता -- शारीरिक अस्वस्थता के बाद सोनिया पिछले कई वर्षो से राहुल को जिम्मेदारी सौंपकर वर्ष 1991 के कांग्रेसी इतिहास से बचने की कवायद कर रही थी। राजीव गांधी की असामयिक मृत्यु के बाद कांग्रेस में कई तत्व पर्दे के पीछे से सोनिया की राजनीतिक समझ को लेकर गोलबंदी करने लगे थे। तात्कालिक परिस्थितियों के अनुरूप सोनिया ने जिस नरसिंहराव पर विश्वास कर प्रधानमंत्री पद के लिए सहमति जतायी, वह भी वफादार साबित नही हुए। सीताराम केसरी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद भी सोनिया को झटका ही लगा। यही वजह थी कि नरसिंहराव और कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी की कार्यप्रणाली से ही सजग होकर सोनिया ने अपनी किलेबंदी करते हुए 1998 में कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी संभाली। इस दौर में सोनिया को गैरों से ज्यादा अपने को ही विरोध तथा षडयन्त्र का सामना करना पड़ा। लगभग डेढ़ दशक की इस राजनीतिक कुचक्र से निकलने के बाद जब सोनिया ने यूपीए गठबंधन के साथ 2004 में कांग्रेस को सत्ता के मुकाम पर पहुंचाया तो किसी राजनीतिज्ञ को आगे नही ले आयी। सोनिया ने प्रधानमंत्री पद स्वयं न स्वीकार कर वफादार नौकरशाह मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी संभाली। तब भी कांग्रेस में यह चर्चा रही कि प्रणव मुखर्जी प्रधानमंत्री पद के लिए ज्यादा योग्य व्यक्ति थे परन्तु सोनिया ने नरसिंह राव आैर सीताराम केसरी की कार्यप्रणाली से जो सबक लिया था, उससे "" दूध का जला छाछ भी फूंक कर पीता है "" मनमोहन सिंह पर ही विश्वास जताया। मनमोहन भी सोनिया की कसौटी पर खरे उतरे आैर एक दशक के शासन में तमाम आरोपों को सहते हुए मनमोहन का मौन सोनिया का कवच बना रहा।
राहुल के राजनीतिक प्रशिक्षण में सोनिया ने कांग्रेस के महामंत्री पद से लेकर उपाध्यक्ष तक का लंबा सफर तय कराया तो अमेठी से संसद तक का अनुभव भी दिलाया। इसके साथ ही सोनिया ने राहुल को अपनी युवा और वफादार टीम तैयार करने का भरपूर मौका दिया। सोनिया की देखरेख का ही परिणाम रहा है कि राहुल की युवा टीम में अभी तक कोई सवालिया निशान लगाने वाला नही निकला जबकि पुरानी कांग्रेसी टीम में अब भी दर्जनों ऐसे लोग भी है जो राहुल क्या सोनिया और कांग्रेस के लिए अभी तक जोक बने हुए लाभ की जगह नुकसान ही पहुंचा रहे है। यही वजह है कि कांग्रेस अध्यक्ष की बागडोर संभालने से पहले ही कांग्रेस विरोधी मणिशंकर का खुराफाती बयान उन्हें पार्टी से निष्कासन पर समाप्त हुआ। इससे जनता में राहुल के तात्कालिक और प्रभावशाली निर्णय का संकेत जाता है।
गुजरात में राहुल की राजनीतिक परीक्षा -- ताजपोशी से पहले राहुल गांधी ने गुजरात चुनाव की दिशा अपने पर केन्द्रित कर साफ कर दिया कि वह राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष बनने के काबित है। राहुल पर बंशवाद का आरोप लगाने वाले मोदी एवं अमित शाह को समझना होगा कि भाजपा अध्यक्ष पद अमित शाह को केवल मोदी की कृपा से मिला है, उससे तमाम लोग पार्टी में ज्यादा अनुभवी एवं कारगर है। राहुल को हल्के में लेने वाले मोदी-शाह की जोड़ी आज छींके मार रही है। पिछले कई वर्षो से मोदी-शाह जिस जातीय गठबंधन की राजनीति को बढ़ावा दे रहे थे, उसे राहुल ने एक ही झटके में तहस-नहस कर दिया। गुजरात के युवा नेताओं को जोड़ीदार बनाकर राहुल ने साबित कर दिया कि भारत में आगामी राजनीति अब युवा पीढ़ी के ही हाथों होगी। यही वजह है कि कांग्रेस में एक तरफ अनुभवी राजनेताओं की टीम है तो दूसरी तरफ युवा नेतृत्व अपनी क्षमता का प्रदर्शन करने को तैयार है। मनमोहन की टीम में राहुल की युवा टीम ने अच्छा प्रदर्शन कर पहले ही संकेत दे दिया है। मनमोहन की टीम में जिन नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे उसमें राहुल की टीम का एक भी सदस्य नही था। राहुल ने कांग्रेस अध्यक्ष पद पर ताजपोशी से पहले गुजरात चुनाव में अपनी राजनीतिक परिपक्तवता साबित कर दी है। गुजरात चुनाव का परिणाम 18 दिसम्बर को आने वाला है और उसके पहले ही राहुल 16 को कार्यभार संभाल लेगे। यह भी सोनिया की रणनीति का हिस्सा है। गुजरात में इतने अच्छे माहौल के बाद भी यदि कांग्रेस को अपेक्षित सफलता नही मिलती है तो ताजपोशी का रंग फीका होता परन्तु सफलता मिली तो उत्साह कई गुना बढ़ जाएगा। गुजरात का चुनाव राहुल को बहुत बड़ा सबका और ताकत दे जाएगा। अब राहुल की दूरदर्शिता और मेहनत का ही परिणाम होगा कि वह अपनी दादी और मां की तरह अडिग विश्वास की तरह चलते हुए कांग्रेस के ताज की रक्षा करे।
11th December, 2017