विजय शंकर पंकज (यूरिड मीडिया)
लखनऊ।
चिर परिचित अन्दाज में बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमों मायावती ने राजधानी लखनऊ में भीड़ जुटाकर दलित वोट बैंक का प्रदर्शन किया। यह चुनावी आैर पैसे की भीड़ थी। मायावती की भीड़ में वर्ष 2007 की तरह सर्व समाज के भाई-चारे का संदेश न होकर नये समीकरण में "" दलित -मुस्लिम "" गठजोड़ की ही भनक दिखायी दी। बसपा के बहुमत की सरकार बनने के दावों के बाद भी माया के शब्दों में ओज आैर विश्वास नही दिखा। लगातार बिखरते कुनबे आैर पुराने सहयोगियों के चुनाव के मौके पर साथ छोड़ने के दंश की पीड़ा चेहरे आैर शब्दों से झलक रही थी। प्रदेश में दलितों की एक छत्र नेता होते हुए भी माया के दिलों दिमाग पर भारतीय जनता पार्टी के महिला मोर्चा की घोषित नव नियुक्त प्रदेश अध्यक्ष स्वाति सिंह का भय छाया हुआ था। चुनाव पूर्व जनसभा में माया दलित वर्ग को भी कोई नया संदेश नही दे पायी लेकिन कानून-व्यवस्था दुरूस्त होने आैर अयोध्या मामले में पुराने मामले का राग अलापने से साफ हो गया कि अब माया की झोली में नया कुछ नही है। चुनाव पूर्व मायावती का भय एवं भीरूता से यह साफ हो गया है कि बसपा का हाथी इस दलित भीड़ से बिदक गया है आैर उसे गणेश का साथ नही मिलने वाला है।
अपनों के साथ छोड़ने की पीड़ा
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बसपा सुप्रीमो के पहले चुनावी रैली से यह साफ हो गया कि मायावती की कार्यशैली से सवर्ण एवं पिछड़ा वर्ग छिटक गया है। दलित वोटों से राजनीति की शुरूआत करने वाली बसपा 13 सीटों से आगे नही बढ़ पायी। वर्ष 1993 में पहली बार सपा-बसपा गठबंधन होने पर बसपा को प्रदेश में 67 सीटें मिली। इस गठबंधन के बाद यादव छोड़ कुर्मी तथा कुछ अन्य पिछड़ी विरादरी भी बसपा के साथ हो गये। भाजपा के सहयोग से तीन बार सरकार बनाने के बाद बसपा ने 2007 के चुनाव में जब दलित राजनीति का चोला छोड़ जब सवर्ण विशेष कर ब्राह्मण की अगुवाई में चुनाव लड़ा तो पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। सत्ता की इस चमक में सत्ता का अधिनायकवाद तथा सवर्णो की उपेक्षा ने सामाजिक एकता के नारे को दोबारा पुराने हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया। इस बीच विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से कार्यकर्ताओं से लगातार धन की उगाही तथा टिकट वितरण के आरोपों ने पार्टी में बगावत की स्थिति पैदा कर दी। अब चुनावी माहौल में बसपा में जिस प्रकार की अफरा-तफरी मची, उसकी साझ झलक रविवार को मायावती की जनसभा में दिखायी दी।
कलई खुली सर्व समाज के नारे की
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मायावती को अगले विधानसभा चुनाव के लिए दलितों को भी कुछ नया आश्वासन देने को नही मिला तो पुराना राग अलापा की अब पार्क आैर पत्थर की मूर्तिया नही लगेगी। पांच वर्ष में मायावती सरकार ने लखनऊ को मुगल बादशाहों की तरह महल, पार्क आैर मूर्तियों से सजाया। इन पार्को में दलित महापुरूषों की मूर्तिया तो लगी परन्तु इसमें कही भी यह नही दिखता कि उत्तर प्रदेश में किसी दलित ने शासन किया हो। प्रदेश भर में दलित समुदाय के लोगों को रोजगार मुहैया कराने तथा गरीबों के उत्थान के लिए कोई कार्य योजना नही बनी। केवल सरकारी नौकरी वालों को प्रमोशन में आरक्षण देकर उन्हें खुश करने का प्रयास किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि मायावती के सर्व समाज के नारे की कलई खुली आैर 2007 में उनका समर्थन करने वाला सवर्ण एवं पिछड़ा वर्ग विदक गया।
स्वाति का आतंक
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कहा जाता है कि "" स्वाति"" की एक बूंद मनुष्य तथा जीव मात्र के लिए शीतलता आैर आनन्ददायी जीवन प्रदान करती है। मोरनी स्वाति की एक बूंद के लिए रात भर मुंह खोलकर आसमान की तरफ देखती रहती है परन्तु मायावती के लिए यह स्वाति आग का अंगारा बन गयी है। बसपा के सभी नेताओं तथा प्रदेश की नौकरशाही को ठेंगे पर रखने वाली मायावती का ""स्वाति-भय"" आज रैली में खुलकर उनके समर्थकों के समक्ष आ गया। इससे पूर्व मायावती के दिलों दिमाग पर केवल 2 जून 1995 के गेस्ट हाउस कांड की घटना का ही भय व्याप्त था परन्तु वह शारीरिक हानि आैर मानसिक उत्पीड़न का भय था परन्तु आज की रैली में माया के चेहर से राजनीतिक भय झलक रहा था। मायावती ने नाम तो नही लिया परन्तु वह सब कुछ कह डाला, जो एक भयभीत व्यक्ति कहता है। बसपा समर्थकों द्वारा दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाति तथा उसकी बेटी को अनाप-शनाप कहने के बाद जिस दृढ़ता के साथ एक घरेलू महिला जनता के बीच आयी, उससे वर्षो का मायावती का कठोर राजनीतिक चेहरे की कलई खुल गयी। इसी दृढ़ता को सामने रखते हुए भाजपा नेतृत्व ने स्वाति सिंह को भाजपा प्रदेश महिला मोर्चे का अध्यक्ष घोषित किया। इस राजनीतिक कदम से मायावती इस कदर डरी की उन्होंने स्वाति पर घरेलू मामलों को लेकर सार्वजनिक तौर पर आरोप लगाये। अब मायावती को कौन समझाये कि किसी के पारिवारिक मामलों में दखलन्दाजी करने पर उनकी भी पोल खुलेगी। स्वाति के खुले विरोध से साफ हो गया है कि बसपा के साथ अब सवर्ण, पिछड़ों एवं महिलाओं का साथ नही मिल रहा है।
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