सांई - धार्मिक वर्णशंकर
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विजय शंकर पंकज (यूरिड मीडिया)
लखनऊ। विश्व का सबसे सहिष्णु देश आैर भारत है। भारतवासियों में सबको आत्मसात करने की महान क्षमता है। दूसरो को अपनाने में भारतवासी भला-बुरा नही सोचते। दोस्त बनकर कोई धोखा देगा, यह भारत की जहनियत में नही है। यहां पर कोई भी किसी तरह का चोला बदल संत, आचार्य आैर भगवान तक हो सकता है। लाखो-करोड़ो भक्त आैर अपार संपदा हासिल कर सकते है आैर सरकार से छूट लेकर इससे किसी भी तरह का काम कर सकते है। पाखंडी रूप बनाकर धर्म को अधर्म का चोला पहना सकते है। इस कड़ी में एक नया चोला आ गया है। अब धर्म का वर्ण शंकरीकरण शुरु हो गया है। शंकराचार्य ने अपने लहजे में चेताया भी परन्तु समाज में पनप रहे वर्णशंकरों को यह रास नही आ रहा है आैर जोर-शोर से यह प्रचार हो रहा है भक्तों की संख्या लगातार बढ़ रही है आैर चढ़ावे में पहले से ज्यादा धनराशि पहुंच रही है। समाज के वर्ण शंकरों का धर्म के वर्ण शंकरीकरण का यह नया चोला है।
जनमानस को दुषित करने का प्रयास --
भारतीय समाज में यह मुद्दा बहुत दिनों से काफी चर्चा में है। कुछ दिनों तक शान्त होने के बाद यह फिर से सर उठाने लगा है। अखंड भारत भूमि के शाश्वत दिनचर्या को दुषित करने की प्रवृति बढ़ती जा रही है। भारतीय मानस आस्था व विश्वास के साथ बुराईयों से दूर रहकर सत्पथ पर चलने के लिए धार्मिक आचरण करता है। भारतीय मानस के देव शाश्वत प्रकृति प्रिय है। वे सृष्टि के कण-कण में विद्यमान है। अजन्मा ब्रह्मा,विष्णु आैर शिव ही इस धर्म भूमि के आराध्य, रक्षक आैर जीवन प्रेरणा है। ये अजन्मा है आैर सृष्टि की रचना इन्ही से हुई है। अन्य धर्मो की तरह यह किसी ईश्वर के पुत्र या पैगम्बर नही है। यह दृश्य-अदृश्य, अजा-अनजा, आस्था-अनास्था, ग्राह्य-अग्राह्य आैर सर्वसमावेशी है। यह समाज को सही रूप दिखाने के लिए समय-समय पर अंशो के साथ अवतरित भी होते है। अवतरण की यह अवधारणा भारतीय जनमानस में ही नही विश्व के अन्य समाजों में भी विभिन्न धार्मिक कथानकों आैर पात्रों के माध्यम से उल्लिखित है।
वर्ण-प्राकृतिक गुण-दोष--
ऋगवेद के पुरूषसुक्त में "वर्ण" शब्द का पहले उल्लेख मिलता है। यह वर्ण बाद के भारतीय समाज की वर्ण-व्यवस्था की अवधारणा से अलग है। ऋगवेद का वर्ण "प्रकृति आैर मनुष्य" के गुण-दोष को परिभाषित करने के लिए उल्लेखित किया गया है। आधुनिक विज्ञान इसे "केमिस्ट्री" कहता है परन्तु वर्ण की मूलभूत अवधारणा के समक्ष यह बहुत ही लघु है। बाद में वर्ण के गुण-दोष के आधार पर भारतीय समाज को चार वर्गो में विभाजित कर कार्य रचना निर्धारित की गयी। इसका कोई स्थायी मानक निर्धारित नही था आैर हर व्यक्ति को इसके माध्यम से स्वयं में सुधार एवं अपने प्रभाव विस्तार का अधिकार प्राप्त था। मनुष्य के मोह-लोभ ने वर्ण को अपभ्रंश कर दिया आैर इसका निकृष्ट रूप जातीय व्यवस्था में आया जिसमें दिनों दिन गिरावट आती गयी।
वैदिक काल के मध्य में ही ऋषि याज्ञवलक्य ने "वर्ण शंकर" शब्द की अवधारणा दी। जब परस्पर प्रतिकूल गुण-दोेष के लोगों का आपस में संयोग होता है तो उसे वर्ण शंकर कहते है। प्रतिकूल गुण-दोष के संयोग का व्यवहार कभी भी स्थायी या शान्तिपूर्ण नही होता है। रसायन शास्त्र में विभिन्न रसायानों के मिश्रण में इस अवधारणा की जानकारी तथा उसके परिणाम का प्रभाव परिलक्षित होता है। रावण आैर उसके पुत्र मेघनाद की प्रकृति तामसी आैर हिंसक थी जबकि उनकी पत्नियां सात्विक एवं शान्ति प्रकृति की थी। यही वजह रही कि इन दोनों संयोगों में आपसी समझौता होते भी जीवन भर किसी विषय पर एका नही रही। राम आैर सीता के संयोग में यही नही दिखता है। हर झंझावात में दोनों एक साथ निष्ठा, प्रेम आैर समर्पण के साथ है। दोनों का एक दूसरे के साथ त्याग आैर समर्पण दुर्लभ है। कृष्ण की 8 पटरानियां है परन्तु इन सभी में इतना संयोग है कि कभी कलह नही उपजती जबकि यह सभी अलग-अलग प्रकृति की है परन्तु कृष्ण का व्यापक स्वरूप सबको आत्मसात कर लेता है।
सांई की गौरवगाथा--
भारत भूमि में कुछ वर्षो पहले "सांई" शब्द को पहले चरण में हिन्दू-मुस्लिम एकता के रूप में प्रतिपादित करने का प्रयास किया गया। इसके मूर्ति पूजा के स्वरूप को मुस्लिम समाज ने नकार दिया जबकि यह बतलाने का प्रयास किया गया कि वह मुस्लिम परिवार में पैदा हुए थे। अब यह स्थिति कायम हो गयी है कि सांई को "शंकर- विष्णु" के तौर पर प्रतिपादित कर गीत गाये जा रहे है। सांई को भगवान मानकर पूजा-अर्चना तथा भजन संगीत चल रहे है। मंदिरों में सांई की बड़ी मूर्ति केेे पास शंकर, विष्णु, गणेश आदि देवी-देवताओं की छोटी मूर्तिया स्थापित कर उनके सामने बौने किये जा रहे है। अन्य देवाओं के मंदिरों में भी सांई की मूर्तियां स्थापित करने के प्रयास किये जा रहे है। पूरे देश-विदेश में अच्छी-खासी धार्मिक दुकान खुल गयी है। आये दिन करोडों में आने वाले चढ़ावा का बखान होता है।
आखिरकार एक जन्मा व्यक्ति अजन्मा भगवान सदृश्य कैसे हो सकता है? भारतीय जनमानस में गुरु को भगवान सदृश्य माना गया है। ईशा मसीह ने अपने को "भगवान का पुत्र" आैर मोहम्मद साहब ने "अल्लाह का पैगम्बर" कहा। इसके विपरीत सांई तो शाश्वत "शंकर-विष्णु" के स्वरूप हो गये है। इसी प्रकार इस्लाम में भी कई लोग ऐसे है जो मजारों पर जाकर मोहम्मद साहब के राह को भटका रहे है। असल में ऐसे ही लोग धार्मिक वर्णशंकरता को बढ़ावा दे रहे है। इसके लिए चमत्कार की तरह-तरह की कहानियां प्रस्तुत कर फिल्मों एवं डाक्यूमेन्ट्री के माध्यम से प्रचार किया जा रहा है। धार्मिक दुकान चलाने के लिए प्रचार का यह नया तरीका है।
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ऋगवेद के पुरूषसुक्त में "वर्ण" शब्द का पहले उल्लेख मिलता है। यह वर्ण बाद के भारतीय समाज की वर्ण-व्यवस्था की अवधारणा से अलग है। ऋगवेद का वर्ण "प्रकृति आैर मनुष्य" के गुण-दोष को परिभाषित करने के लिए उल्लेखित किया गया है। आधुनिक विज्ञान इसे "केमिस्ट्री" कहता है परन्तु वर्ण की मूलभूत अवधारणा के समक्ष यह बहुत ही लघु है। बाद में वर्ण के गुण-दोष के आधार पर भारतीय समाज को चार वर्गो में विभाजित कर कार्य रचना निर्धारित की गयी। इसका कोई स्थायी मानक निर्धारित नही था आैर हर व्यक्ति को इसके माध्यम से स्वयं में सुधार एवं अपने प्रभाव विस्तार का अधिकार प्राप्त था। मनुष्य के मोह-लोभ ने वर्ण को अपभ्रंश कर दिया आैर इसका निकृष्ट रूप जातीय व्यवस्था में आया जिसमें दिनों दिन गिरावट आती गयी।